Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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92 : प्राकृत व्याकरण सर्वनाम रूप 'की-जी-ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में (प्राकृत में) 'अत्-अ, आत-आ; इत् =इ और एत्-ए' प्रत्ययों का भी क्रम से अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये। क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- कस्याः=(३-६४ के विधान से) किस्सा और कीसे एवं (३-२९ के विधान से) पक्षान्तर में कीअ, कीआ, कीइ और कीए। यस्याः जिस्सा और जीसे; पक्षान्तर में जीअ, जीआ, जीइ और जीए। तस्याः तिस्सा और तीसे; पक्षान्तर में तीअ, तीआ,तीइ और तीए। __ कस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किस्सा, कीसे, कीअ, कीआ, कीइ और कीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति; ३-३२ से 'क' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'ङी-ई' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-६४ से 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर (प्राकृत में) 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा संयोगात्मक होने से अंग रूप 'की' में स्थित दीघस्वर'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ'को प्राप्ति होकर प्रथम रूप किस्सा सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय-रूप-(कस्याः ) कीसे में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्ताग 'की'में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कीसे सिद्ध हो जाता है। __तृतीय रूप से छटे रूप तक-(कस्याः =) कीअ, कीआ, और कीए में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में सस्कृत प्रत्यय 'उस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम-से-'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से जीअ, जीआ, जीइ और जीए रूप सिद्ध हो जाते है।
यस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिस्सा, जीसे, जीअ, जीआ, जीइ और जीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'ज' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेत-'ङी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-६४ से प्राप्तांग 'जा' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'जी' में स्थित दीर्घस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिस्सा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (यस्याः =) जीसे में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में से प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जीसे सिद्ध हो जाता है। __ तृतीय रूप से छटे तक-(यस्याः =) जीअ, जीआ, जीइ और जीए में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तृतीय रूप से छठे रूप तक अर्थात् जीअ, जीआ, जीइ और जीए रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तिस्सा, तीसे, तीअ, तीआ, तीइ और तीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द तद् में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'त' पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'डी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-६४ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'ती' स्थित दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तिस्सा सिद्ध हो जाता है।
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