Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 17 अग्नयः संस्कृत प्रथमा रूप है। इसके प्राकृत रूप अग्गउ, अग्गओ और अग्गिणो होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डउ' और 'डओ' आदेश प्राप्ति; आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में हलन्त 'ड्' इत्संज्ञक; तदनुसार प्राप्त रूप 'अग्नि में से अन्त्य स्वर 'इ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं अंत में ३-२० से प्राप्त प्रत्यय 'अउ' और 'अओ' की 'अग्ग' में संयोजना होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दोनों रूप अग्गउ और अग्गओ सिद्ध हो जाते है।
अग्गिणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है। ___ वायवः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वायउ, वायओ और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२० से संस्कृत प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डउ' और 'डओ' प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति; आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में स्थित 'ड् इत्संज्ञक होने से मूल शब्द वायु में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं पश्चात् शेष रहे हुए 'वाय' रूप में क्रम से 'अउ' और 'अओ' प्रत्ययों की संयोजना होकर प्रथम के दो रूप क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'वायउ' और 'वायओ सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप (वायवः-) वाउणो में सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो'- प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'वाउणो' सिद्ध हो जाता है। ____ अग्नयः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप अग्गी सिद्ध हो जाता है।
वायवः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वाऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप वाऊ सिद्ध हो जाता है।
बुद्धयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२७ से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घता की प्राप्ति के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनवः- संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'ने' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२७ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति बोधक प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धेणूओ रूप सिद्ध हो जाता
दधीनि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहीइं रूप सिद्ध हो जाता है।
मधूनि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महूइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महूइं रूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org