Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 53 नदि ! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे नइ ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप और ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति एवं १ - ११ से प्रथमा विभक्तिवत् संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप हे नइ ! सिद्ध हो जाता है।
ग्रामणि! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे गामणि! होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द ग्रामणी - गामणी में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप हे गामणि! सिद्ध हो जाता है।
हे श्रमणि! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप हे समणि! होता है इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्'का लोप; १ - २६० से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'श्रमणि समणी' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स्' का लोप होकर हे समणि! रूप सिद्ध हो जाता है।
वधु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे बहु ! होता है ! इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'वधू - वहू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही (संबोधन के एकवचन में) प्राप्त 'सि' के स्थानीय रूप ‘स्' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप' हे वहु ! सिद्ध हो जाता है।
हे खलपु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप भी हे खलपु ! ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'खलपू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर 'हे खलपु !' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४२।।
क्विपः ।।३-४३।
क्विबन्तस्येदूदन्तस्य ह्रस्वो भवति ।। गामणिणा । खलपुणा । गामणिणो । खलपुणो ।।
अर्थः- ग्रामणी-गामणी अर्थात् गांव का मुखिया और खलपू अर्थात् दुष्ट पुरुषों को पवित्र करने वाला इत्यादि शब्दों में 'णो' और 'पू' आदि विशेष प्रत्यय लगाये जाकर ऐसे शब्दों का निर्माण किया जाता है; इससे इनमें विशेष - अर्थता प्राप्त हो जाती है और ऐसी स्थिति में ये क्विबन्त प्रत्यय वाले शब्द कहलाते है। ऐसे क्विबंत प्रत्यय वाले शब्दों में जो दीर्घ कारांत वाले और दीर्घ ऊकारांत वाले शब्द हैं, उनमें विभक्ति - बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने वाले अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' अथवा 'ऊ' का हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' हो जाता है और तत्पश्चात् विभक्तिबोधक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं। जैसे :- ग्रामाण्या गामणिणा- अर्थात् ग्राम मुखिया द्वारा; खलप्वा खलपुणा अर्थात् दुष्टों को (अथवा खलिहान को) साफ करने वाले से; ग्रामण्यः = (प्रथमा -द्वितीया बहुवचनान्त) = ग्रामणिणों अर्थात् गांव का मुखिया (पुरुषगण ) अथवा गांव मुखियाओं को और खलप्वः = (प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त) खलपुणो अर्थात् दुष्ट- पुरुषों (या खलिहानों) को साफ करने वाले अथवा साफ करने वालों को। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि विभक्तिबोधक प्रत्यय प्राप्त होने पर क्विबन्त शब्दों के अन्त्य दीर्घ स्वर हस्व हो जाया करते हैं।
'गामणिणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २४ में की गई है।
'खलपुणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २४ में की गई है।
ग्रामण्यः संस्कृत प्रथमा-द्वितीया के बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या
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