Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 73 प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः- आत्मा - अप्पा और अप्पो । संबोधन के एकवचन का उदाहरणः- हे आत्मन् - हे अप्पा; और हे अप्प ! प्रथमा विभक्ति बहुवचन का उदाहरण आत्मानः तिष्ठन्ति = अप्पाणो चिट्ठन्ति इस उदाहरण में 'आत्मन् = अप्प' अंग में सूत्र - संख्या ३ - ५० के अनुसार प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का उदाहरण:- आत्मनः पश्य = अप्पाणो पेच्छ अर्थात् अपने आपको (आत्मगुणो को ) देखो। इस उदाहरण में भी 'आत्मन् = अप्प' अंग में सूत्र - संख्या ३-५० के अनुसार ही द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है।
अन्य विभक्तियों में 'आत्मन् - अप्प' के रूप इस प्रकार होते हैं:
विभक्ति नाम
एकवचन
बहुवचन (आत्मभिः=) अप्पेहिं।
अप्पणा
अप्पाणो, अप्पाओ,
(आत्मभ्यः =)
अप्पासुतो इत्यादि ।
षष्ठी - (आत्मनःधनम्= )
अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो, अप्पा । अप्पणो धणं । अप्पे |
(आत्मनाम्=) अप्पाणं ।
सप्तमी - (आत्मनि =)
(आत्मसु =) अप्पेसु ।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि अन्' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति के अभाव में विभक्ति - (बोधक) - कार्य की प्रवृत्ति सूत्र - संख्या ३-४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र - संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र में 'राजावत्' शब्द का सूत्र - रूप से उल्लेख करके प्रदर्शित किया गया है।
इसी प्रकार से 'राजन्' शब्द भी पुल्लिंग होता हुआ 'अन्' अन्त वाला है; तदनुसार सूत्र - संख्या ३-५६ के विधान से 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है और ऐसा होने पर 'राजन्' =रायाण' रूप अकारान्त हो जाता है; तथा अकारान्त होने पर इसी विभक्ति - बोधक कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जब सूत्र - संख्या ३-५६ के अनुसार प्राप्तव्य' 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति का अभाव होगा; तब इसकी विभक्ति (बोधक) - कार्य की प्रवृत्ति सूत्र - संख्या ३ - ४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३ - ५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है । इस महत्व - पूर्ण स्थिति को सदैव ध्यान में रखना चाहिये।
तृतीया - (आत्मना =)
पंचमी - (आत्मनः=)
अब 'राजन्= रायाण' रूप की विभक्ति - बोधक-कार्य की प्रवृत्ति नीचे लिखी जाती है:
विभक्ति - नाम
एकवचन
(राजा = ) रायाणो
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
पंचमी
षष्ठी
बहुवचन
(राजान:=) रायाणा
(राज्ञः =) रायाणे
(राजभिः=) रायाणेहिं (राजभ्यः=) रयाणासुंतो इत्यादि (राज्ञाम्=) रायाणाणं
सप्तमी
(राज्ञ: =) रायाणस्स (राज्ञि=) रायाणम्मि
(राजसु =) रायाणेसु
शेष रूपों की स्थिति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार जानना चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से 'राजा-राया' आदि रूपों की स्थिति सूत्र-संख्या ३-४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३-५५ के अनुसार स्वयमेव जान लेना चाहिए। कुछ 'अन्' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों का प्राकृत रूपान्तर सामान्य अवबोधन हेतु नीचे लिखा जा रहा है :
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(राजानम् =) रायाणं
(राज्ञा =) रायाणेण
(राज्ञः = ) रायाणाहिंतो इत्यादि
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