Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
72 : प्राकृत व्याकरण इणममामा (३-५३) इति प्रवर्तन्ते।। अप्पाणो। अप्पाणा। अप्पाण। अप्पाणे। अप्पाणेण अप्पाणेहि। अप्पाणाओ। अप्पाणा सुन्तो। अप्पाणस्स। अप्पाणाण। अप्पाणम्मि। अप्पाणेसु। अप्पाण-कयं। पक्षे राजवत्। अप्पा। अप्पो। हे अप्पा। हे अप्प। अप्पाणो चिटन्ति। अप्पाणो पेच्छ। अप्पणा। अप्पेहि। अप्पाणो। अप्पाओ। अप्पाउ। अप्पाहि। अप्पाहिन्तो। अप्पा। अप्पासुन्तो। अप्पणो धणं। अप्पाण। अप्पे अप्पेसु।। रायाणो। रायाणा। रायाणां रायाणे। रायाणेण। रायाणेहि। रायाणाहिन्तो। रायाणस्स। रायाणाणां रायाणम्मि। रायाणेसु। पक्ष। राया इत्यादि। एवं जुवाणो। जुवाण-जणो। जुआ। बम्हाणो। बह्मा।। अद्धाणो। अद्धा।। उक्षन्। उच्छाणो। उच्छा।। गावाणो। गावा।। पूसाणो। पूसा। तक्खाणो। तक्खा।।। __मुद्धाणो। मुद्धा।। श्वन्। साणो। सा। सुकर्मणः पश्च।। सुकम्माणे पेच्छ। निएइ कह सो सुकम्माणे। पश्यति कथं स सुकर्मण इत्यर्थः।। पुंसीति किम्। शर्म। सम्म। ___ अर्थ:- जो संस्कृत शब्द पुल्लिंग होते हुए 'अन्' अन्त वाले हैं; उनके प्राकृत रूपान्तर में उस 'अन्' अवयव के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आण' (आदेश) की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां अन् के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति नहीं होती; वहां उन शब्दों की विभक्तिबोधक रूपावली 'राज' शब्द के समान उपर्युक्त सूत्रों में वर्णित विधि-विधानानुसार होगी। 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश)-प्राप्ति होने पर वे शब्द 'अकारान्त' शब्दों की श्रेणी में प्रविष्ट हो जायगे। और उनकी विभक्ति बोधक रूपावली 'जिण' आदि शब्दों के अनुरूप ही निर्मित होगी; तथा उसमें 'अतः सेों; (३-२) आदि सभी सूत्र वे ही प्रयुक्त होंगे; जो कि 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों में प्रयुक्त होते है। वैकल्पिक पक्ष में 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश) की प्राप्ति नहीं होने पर 'राज' के समान ही विभक्तिबोधक रूपावली होने के कारण से उनमें "जस् शस् डसि-ङसां णो'- (३-५०); 'टो-णा' (३-२४) और 'इणममामा'-(३-५३) इत्यादि सूत्रों का प्रयोग होगा। इस प्रकार अन् अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों की विभक्तिबोधक रूपावली दो प्रकार से होती है; प्रथम प्रकार में 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश) की प्राप्ति होने पर 'अकारान्त' शब्दों के समान ही रूपावलि-निर्मित होगी और द्वितीय प्रकार में आण' आदेश प्राप्ति का अभाव होने पर उनकी रूपावली 'राज' शब्द में प्रयुक्त किये जाने वाले सूत्रों के अनुसार ही होगी। यह सूक्ष्म भेद ध्यान में रखना चाहिये। अब यहां पर सर्व-प्रथम 'अन्' अन्त वाले 'आत्मन्' शब्द में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति का विधान करके इसको 'अकारान्त स्वरूप प्रदान करते हुए जिण' आदि अकारान्त शब्दों के समान ही उक्त 'आत्मन्-अप्पाण' की विभक्तिबोधक रूपावली का उल्लेख किया जाता है।
एकवचन
बहुवचन प्रथमा- (आत्मा)
अप्पाणा
(आत्मानः-) अप्पाणा द्वितीया - (आत्मानम्=)
अप्पाणं
(आत्मनः=) अप्पाणे तृतीया- (आत्मना)
अप्पाणेण
(आत्मभिः=) अप्पाणेहि पञ्चमी-(आत्मनः)
अप्पाणाआ
(आत्मभ्यः-) अप्पाणासुंतो षष्ठी-(आत्मनः=)
अप्पाणस्स
(आत्मनाम्=) अप्पाणाण सप्तमी-(आत्मनि)
अप्पाणम्मि
(आत्मसु-) अप्पाणेसु समास अवस्था में 'आत्मन् अप्पाण' में रहे हुए विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का लोप हो जाता है। जैसे:आत्म-कृतम् अप्पाण-कयं अर्थात् खुद से-स्वयं अपने से अथवा आत्मा से किया हुआ है। उपर्युक्त 'आत्मन्-अप्पाण' के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि 'अन्' अन्त वाले पुल्लिग शब्दों में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश-की प्राप्ति होकर वे शब्द अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की श्रेणी के अन्तर्गत हो जाते हैं। किन्तु यह स्थिति वैकल्पिक पक्षवाली है; तनदुसार 'आण' आदेश को प्राप्ति के अभाव में 'अन्' अन्त वाले शब्दों की स्थिति सूत्र-संख्या ३-४९ से लगाकर ३-५५ तक के विधि विधानानुसार निर्मित होती हुई 'राज' शब्द के समान संचारित होती है। इस विधि-विधान को 'आत्मन् अप्पा' के उदाहरण से नीचे स्पष्ट किया जा रहा है:- Forprivate spersonal useDRIN
Jain Education internationa
www.jainelibrary.org