Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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66 : प्राकृत व्याकरण
'चिटन्ति' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायाणो, राया और राए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राज्ञः=) राया में 'राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से 'राय में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' की प्राकृत में प्राप्ति एवं लोप स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप-(राज्ञः-) राए में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त 'न्' व्यञ्जन का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'राअ में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस् की प्राकृत में प्राप्ति एवं लोप-स्थिति प्राप्त होकर तृतीय रूप 'राए' भी सिद्ध हो जाता है। _ 'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
राज्ञः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणो, रण्णो, रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्तो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५२ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राज्ञः=) रण्णो में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५५ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अण्' की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तांग 'रण' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'रण्णो' सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप से सातवें रूप तक में अर्थात् (राज्ञः=) रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्ता और राया में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न' का लोप; १-१७७ से 'ज् का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति;३-१२ से प्राप्तांग 'राय में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय रहे हुए होने से' दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-८ से प्राप्तांग 'राया' में पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ओ-उ हि हिन्तो और लुक' की क्रम से प्राप्ति होकर क्रम से रायाओ, रायाउ.रायाहि.रायाहिन्तो और राया रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'आगओ' रूप से सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
राज्ञः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणो, रण्णो और रायस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-५२ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राज्ञः=) रण्णो में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप ३-५५ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अण्' की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तांग 'रण' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रण्णो भी सिद्ध हो जाता है।
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