Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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64 : प्राकृत व्याकरण
से आदेश प्राप्त 'अर्' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'भायर' संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भायरो सिद्ध हो जाता है।
कर्ता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप कत्ता और कत्तारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र - संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'कर्तृ' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४८ से शब्दान्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश प्राप्ति; और शेष साघनिका की प्राप्ति सूत्र - संख्या ४-४४८ तथा १ - ११ से उपर्युक्त 'जामाया' के समान ही होकर प्राकृत रूप 'कत्ता' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (कर्ता = ) कत्तारो में सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल संस्कृत शब्द 'कर्तृ' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्तिः ३ - ४५ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कत्तार' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कत्तारो सिद्ध हो जाता है।
पिता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप- (पूर्वोक्त पिआ के अतिरिक्त) पिअरो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'पिअर' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिअरो रूप सिद्ध हो जाता है । । ३ - ४८ ।।
राज्ञः ।।३-४९ ।
राज्ञो न लोपेऽन्त्यस्य आत्वं वा भवति सौ परे ।। राया । हे राया । पक्षे । आणा । देशे। रायाणो ।। हे राय । हे राय इति तु शौरसेन्याम् । एवं हे अप्पं । हे अप्प ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'सि' परे रहने पर सूत्र - संख्या १-११ से 'न्' का लोप होकर अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- राजा-राया; वैकल्पिक पक्ष में सूत्र-संख्या ३-५६ से ' आण' आदेश की प्राप्ति होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में राजा-रायाणो रूप भी होता है। संबोधन एकवचन का उदाहरण:- हे राजन् - हे राया ! और हे राय ! शौरसेनी भाषा में सूत्र - संख्या -४-२६४ से संबोधन के एकवचन में 'हे राय!' रूप भी होता है। इसी प्रकार से आत्मन्' शब्द भी राजन्' के समान ही नकारान्त होने से इस 'आत्मन्' शब्द के संबोधन के एकवचन में भी दो रूप होते हैं:- जैसे- हे आत्मन् - हे अप्पं अथवा हे अप्प ! " प्रथम रूप शौरसेनी भाषा का है; जबकि द्वितीय रूप प्राकृत भाषा का है!
राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राया और रायाणो होते हैं। इनमे से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप; एवं ३ - ४९ से शेष शब्द राज के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; ४ - ४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि'='स्' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय हलन्त 'स्' का लोप होकर राया रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राजा =) रायाणो में सूत्र - संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन् - में स्थित 'ज्' का लोप १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५६ से प्राप्तांग 'रायन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्तांग 'रायाण' में सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणा भी सिद्ध हो जाता है।
हे राजन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे राया ! और हे राय ! होते हैं। इनमें में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप एवं ३ - ४९ से शेष शब्द 'राज' के
सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्'
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