Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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54 : प्राकृत व्याकरण २-७९ से 'र' का लोप; ३-४३ से मूल शब्द 'गामणी' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति
और ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के संस्कृत 'जस-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामणिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
खलप्वः संस्कृत प्रथमा-द्धितीया के बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप खलपुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल शब्द 'खलपू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय 'जस-शस' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खलपुणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४३॥
ऋतामुदस्यमौसु वा।।३-४४।। सि अम् औ वर्जिते अर्थात् स्यादौ परे ऋदन्तानामुदन्तादेशो वा भवति। जस्। भत्तू। भत्तुणो। भत्तउ, भत्तओ। पक्षे। भत्तारा।। शस्। भत्तू। भत्तुणो। पक्षे भत्तारे ।।टा। भत्तुणो। पक्षे। भत्तारेण। भिस्। भत्तूहिं। पक्षे भत्तारेहि। उसि। भत्तुणो। भत्तूओ। भत्तूउ। भत्तूहिं। भत्तुहिन्तो। पक्षे भत्ताराओ। भत्ताराउ। भत्तराहि। भत्ताराहिन्तो। भत्तारा। ङस् भत्तुणो। भत्तुस्स पक्षे भत्तारस्य। सुप्। भत्तूसु। पक्षे। भत्तारेसु।। बहु-वचनस्य व्याप्त्यर्थत्वात् यथा दर्शनं नाम्न्यपि उद् वा भवति जस् शस्-ङसि-डस्-सु। पिउणो जामाउणो। भाउणो। टायाम्। पिउणा।। भिसि। पिऊहिं।। सुपि। पिऊसु। पक्षे। पिअरा इत्यादि।। अस्य मौस्विति किम्। सि। पिआ।। अम्। पिअरं।। औ। पिअरा।।
अर्थः- संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' द्विवचन के प्रत्यय 'औ' और द्वितीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'अम्' के सिवाय अन्य किसी भी विभक्ति के एकवचन अथवा बहुवचन के प्रत्ययों की संयोजना होने पर शब्द के अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है और तत्पश्चात् उकारान्त के समान ही इन तथाकथित-ऋकारान्त-उकारान्त शब्दों में विभक्तिबोधक प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। जैसे:- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर- 'भर्तृ के रूप-भर्तार; के प्राकृत रूपान्तर-भत्तू, भत्तुणों भत्तूउ और भत्तओ' होते हैं। एवं वैकल्पिक पक्ष होने से भत्तारा' रूप भी होता है। द्वितीया विभक्ति बहुवचन के शस् प्रत्यय के उदाहरणः- भर्तृन्=भत्तू, भत्तणो तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्तारे भी होता है। तृतीया विभक्ति के एकवचन के 'टा' प्रत्यय का उदाहरणः- भा भत्तुणा और वैकल्पिक पक्ष मे भत्तारेण होता है। तृतीया बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' का उदाहरणः- भर्तृभिः भत्तूहिं और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेहिं इत्यादि होते हैं। 'ङसि पंचमी विभक्ति के एकवचन के उदाहरणः- भर्तुः-=भत्तुणो, भत्तूउ, भत्तूहिं और भत्तूहिन्तो तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। ङस्' षष्ठी विभक्ति के एकवचन के उदाहरण:- भर्तुः भत्तुणो, भत्तुस्स तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्तारस्स रूप होता है। 'सुप्' सप्तमी विभक्ति का बहुवचन का उदाहरण :- भर्तुषु भत्तुसु और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेसु होता है।
ऋकारान्त शब्द दो प्रकार के होते हैं; संज्ञा रूप और विशेषण रूप; तदनुसार इस सूत्र की वृत्ति में 'ऋदन्तानाम् ऐसा बहुवचनात्मक उल्लेख करने का तात्पर्य यही है कि संज्ञारूप और विशेषण रूप दोनों प्रकार के ऋकारान्त शब्दों के अन्त्यस्थ'ऋ' स्वर के स्थान पर 'सि' और 'अम्' प्रत्ययों को छोड़कर शेष सभी प्रत्ययों का योग होने पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसेः- प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय 'जस् के उदाहरणः- पितृ+जस्=पितरः पिउणो; जामातृ ङसि-जामातुः जामाउणो और भ्रातृ+ ङस् भ्रातुः भाउणो इत्यादि। इस प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय, पंचमी विभक्ति के एकवचन में ङस्'ि प्रत्यय, षष्ठी विभक्ति के एकवचन से 'उस' प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय प्राप्त होने पर ऋकारान्त संज्ञाओं के अन्त्यस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है। तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय का उदाहरणः- पितृ+टा-पित्रा पिउणा; तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'भिस्' प्रत्यय का उदाहरणः- पितृभिः पिऊहिं; और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में सुप् प्रत्यय का उदाहरण :- पितृषु पिउसु यों ऋ के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति का विधान समझ लेना चाहिये। वैकल्पिक पक्ष होने से
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