Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 57 द्वितीय रूप- (भर्तुः = ) भत्तुस्स में 'भत्तु' अंग की साधनिका ऊपर के समान; और ३- १० से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'भत्तु' में षठी - विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुस्स सिद्ध हो जाता है।
३-४५
तृतीय रूप - (भर्तुः = ) भत्तारस्स में सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - ८९ से 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; मूल शब्दस्थ अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति और ३-१० सें प्राप्तांग ' भत्तार' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भत्तारस्स सिद्ध हो जाता हैं।
भर्तृषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तूसु और भत्तारेसु होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'भत्तु' अंग की साधनिका ऊपर के समान ३ - १६ से प्राप्तांग 'भत्तु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप; की प्राकृत में भी प्राप्ति; एवं १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय 'सुप; में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प्' का लोप होकर प्रथम रूप भत्तूसु सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ( भर्तृषु = ) भत्तारेसु में ' भत्तार' की साधनिका ऊपर के समान; ३ - १५ से प्राप्तांग ' भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूपवत् ४-४४८ तथा १ - ११ से होकर द्वितीय रूप भत्तारेसु भी सिद्ध हो जाता है।
पितरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप पिउणो और पिअरा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूल- संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का सूत्र - संख्या १ - १७७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति; और ३ - २२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिउणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- ( पितरः = ) पिअरा में सूत्र संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ३ - १२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति रही हुई होने से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथम विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत से लोप होकर द्वितीय रूप पिअरा सिद्ध हो जाता है।
जामातृः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामाउणो होता है। इसमें मूल संस्कृत शब्द 'जामातृ' में स्थित 'त्' का सूत्र - संख्या १ - १७७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३- २३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में (वैकल्पिक रूप से) 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामाउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृः संस्कृत षष्ठयन्यत एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भाउणो होता है। इसमें मूल शब्द भ्रातृ में सूत्र - संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'तू' का लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ'आदेश की प्राप्ति और ३- २३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाउणो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
पितृ संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउणा होता है। मूल शब्द पितृ में -सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३- २४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउणा हो जाता है।
पितृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप पिऊहिं होता है। इसमें पिउ अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि - अनुसार; ३ - १६ से प्राप्तांग 'पिउ' में स्थित ह्रस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-१ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिऊहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
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