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२.६७]
२. सेणियचिंताविहाणं पढमम्मि य वक्खारे, परिसा निग्गन्थमहरिसीणं तु १ । तयणन्तरं पि बीए, सोहम्माईसुरवहूर्ण२ ।। ५५ ॥ तइयम्मि य वक्खारे, परिसा अजाण गुणमहन्तीणं३ । तत्तो परं तु नियमा, जोइसकन्नाण परिसा य४ ॥ ५६ ॥ वन्तरवहूण तत्तो५, परिसा उण भवणवासियवहूर्ण६ । तत्तो परं तु नियमा, जोइसियाणं सुरवराण७ ॥ ५७ ॥ क्न्तरभवणिन्दाणं८, वक्खारेसु य हवन्ति परिसाओ९ । सोहम्माईण तओ, देवाणं कप्पवासीणं१० ॥ ५८ ॥ अवरम्मि य वक्खारे, परिसा मणुयाण नरवरिन्दाणं११ । होइ तिरिक्खाण पुणो, परिसा पुबत्तरे भागे१२ ॥ ५९ ॥ एवं पसन्नचित्ते, सुरवरमेलीणपत्थिवसमूहे । पुच्छइ धम्मा-ऽधर्म, तित्थयरं गोयमो नमिउं ।। ६० ॥ तो अद्धमागहीए, भासाए सबनीवहियनणणं । जलहरगम्भीररवो, कहेइ धम्म जिणवरिन्दो ॥ ६१ ॥ वीरस्य भगवतो देशनादवं च होइ दुविहं, जीवा-ऽजीवा तहेव नायबं । जीवा हवन्ति दुविहा, सिद्धा संसारवन्ता य ।। ६२ ॥ जे होन्ति सिद्धजीवा, ताण अणन्तं सुहं अणोवमियं । अक्खयमयलमणन्तं, हवइ सया बाहपरिमुक्कं ।। ६३ ॥ तत्थ य संसारत्था, दुविहा तस-थावरा मुणेयबा । उभए वि हुन्ति दुविहा, पज्जत्ता तह अपजत्ता ॥ ६४ ॥ पुढवि जल जलण मारुय, वणस्सई चेव थावरा भणिया । बेइन्दियाइ जाव उ, दुविह तसा सन्नि इयरे य ॥ ६५ ॥ नं तं अजीवदाई, धम्मा-ऽधम्माइभेयभिन्नं च । भवाण सिद्धिगमणं, तं विवरीयं अभवाणं ॥ ६६ ॥ मिच्छत्त-जोगषच्चय, तह य कसाएसु लेससहिएसु । एएसु चेव जीवो, बन्धइ असुहं सया कम ॥ ६७ ॥
प्रथम वक्षस्कार (खण्ड) में निर्ग्रन्थ महर्षियोंकी परिषद् जमा हुई थी। दूसरेमें सौधर्म आदि देवोंकी देवियाँ थीं (५५) तीसरेमें अपने गुणोंके कारण महान ऐसी साध्वियोंकी परिषद् थी। उसके पश्चात् नियमानुसार ज्योतिष्क देवलोककी देवियोंकी परिषद्का स्थान था। (५६) इसके अनन्तर व्यन्तरकन्या तथा भवनवासी देवियोंका स्थान आता था। इसके बाद, यथानियम, ज्योतिष्क देवोंका स्थान था। (५७) बादमें व्यन्तर एवं भवनेन्द्र देवोंका विभाग आता था। इनके बाद सौधर्म तथा कल्पवासी देवोंका विभाग था। (५८) अन्यमें मनुष्यों एवं राजाओंका स्थान था। उनके पश्चात् समवसरणके पूर्वोत्तर भागमें तियचोंका जमाव था। (५९) देवों और राजाओंके ऐसे समूहके बीच गौतम वन्दन करके तीर्थकरदेवसे धर्म एवं अधर्मके बारेमें प्रश्न पूछते हैं। (६०) तब मेघके समान गम्भीर ध्वनिवाले जिनवरेन्द्र महावीर अर्धमागधी भाषामें सभी लोगोंके लिये कल्याणकर ऐसे धर्मका इस प्रकार उपदेश देते हैं-(६१) भगवान् महावीरका उपदेश
द्रव्य दो प्रकारके हैं। जीव और अजीव रूप ये दो भेद जानने योग्य हैं। जीवके भी दो भेद हैं-(१) सिद्ध, और (२) संसारी (६२) जो सिद्ध जीव होते हैं उनका सुख अनन्त, अनुपम, अक्षय, अमल, अनन्त एवं किसी भी प्रकारकी बाधासे सदा मुक्त अर्थात् अव्याबाध होता है । (६३) संसारी जीवोंके भी त्रस एवं स्थावर रूपसे दो भेद जानने चाहिए। इन दोनोंके भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूप दो दो भेद हैं। (६४) पृथ्वी. पानी, आग, पवन और वनस्पति-ये पाँच स्थावर जीव कहे गए हैं। द्वीन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके त्रस जीव हैं। उनके भी दो भेद हैं-(१) संज्ञी अर्थात् मनवाले, और (२) असंज्ञो अर्थात् मनरहित । (६५) जो अजीव द्रव्य है वह धर्म, अधर्म आदि भेदसे अनेक प्रकारका है। भव्य जीव मोक्षमें जाते हैं, जबकि अभव्य जीव मोक्षमें न जाकर इस संसारमें भटकते ही रहते हैं। (६६) मिथ्यात्व, मन-वचन-कायको प्रवृत्ति रूप योग तथा लेश्या सहित कषाय इन कारणोंसे जीव सर्वदा अशुभ कर्मका बन्ध करता है। (६७) सम्यक्त्वके
१. वाधा पारमुक्तम् । २. द्रव्य एवं भावके भेदसे लेश्याके दो प्रकार हैं। द्रव्य लेश्या शारीरिक वर्ण (कृष्ण, नौल, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ) का समावेश होता है, जबकि आत्माके कृष्ण ( अत्यन्त कलषित परिणाम ) आदि परिणामोंको भाव लेश्या कहते हैं।
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