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२६. ६४] २६. सीया-भामण्डलुप्पत्तिविहाणं
२२१ कढकढकढेन्तफरिस, विलोणतउ-तम्ब-सीसयसरिच्छं । वस-केस-पूय-सोणिय-मीसं खारोदयं दुरभि ॥ ५० ॥ चडचडचर्ड त्ति घेत्त, खण्डन्ति य वेढियं महीवट्टे । पाइज्जन्ति रडन्ता, पाणीयं नरयपालेहिं ॥ ५१ ॥ खारोदयदद्धङ्गा, मयवेगेणं समुट्ठिया सन्ता । छायं हिलसमाणा, असिपत्तवर्ण तओ जन्ति ॥ ५२ ॥ खणखणखणन्ति खम्गा, गाढं कणकणकणन्ति सत्तीओ। मडमडमडन्ति कोन्ता, ताण सरीरे निवडमाणा ॥ ५३ ॥ कर-चरण-कण्ण-नासोट्ठ-फुप्फुसा छिन्नभिन्नसबङ्गो । लोलन्ति धरणिवट्टे, मेय-वसा-रुहिरविच्छड्डा ॥ ५४ ॥ खर-फरुसरज्जुबद्धा, सिग्धं आहिण्डिऊण विरडन्ता । आरुहणोरुहणाई, कारिज्जन्ते अकयपुण्णा ॥ ५५ ॥ पीलिज्जन्ते जन्तेसु केइ कडकडकडेन्ति कावडिया। अवरे मुसुंढि-मोग्गर-चडक्कघाएसु ओसुद्धा ॥ ५६ ॥ काएसु य गिद्धेसु य, अवरे चडचडचडायखद्धङ्गा । अणुहोन्ति वेयणाओ, चिट्ठइ नरयाउयं जाव ।। ५७ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, दुक्खाणि निरन्तरं अणुहवन्ता । अच्छन्ति दीहकोलं, जेहि अधम्मो को पुर्वि ॥५८ ।। एयं सोऊण तुमं, दुक्खं नरएसु मंससंभूयं । तम्हा वज्जेह इम, मंसं दोसाण आमूलं ॥ ५९ ॥ जो पुण मंसनिवित्ति, कुणइ नरो सील-दाणरहिओ वि । सो च्चिय सोग्गइगमणं, पावइ नत्थेत्थ संदेहो ॥ ६०॥ पञ्चाणुषयधारी, जो पुण तव-नियम-सीलसंपन्नो । जिणसासणाणुरत्तो, सो देवो होइ सुहनिलओ ॥ ६१ ॥ मांसविरतिफलम् - हवइ अहिंसा मूलं, धम्मस्स जिणुत्तमेहि परिकहियं । सा पुण सुनिम्मलतरी, मंसनिवित्तीऍ संभवइ ।। ६२ ।। जो वि य सबर-पुलिन्दो, चण्डालो वा दयावरो निययं । महु-मंसनिवित्तीए, सो पावविवज्जिओ होइ ।। ६३ ॥
पावेण वज्जियस्स य, देवत्तं हवइ अह नरिन्दत्तं । सम्मत्तलद्धबुद्धी, कमेण सिद्धि पि पाविहिइ ।। ६४ ॥ वे उसमें गिरते हैं। (४९) वह पानी कड़-कड़ करते हुए स्पर्शवाला, पिघले हुए और गरम ताँबे व सीसेके जैसा, चरबी, केश, पीब और रक्तसे मिश्रित, दुर्गन्धयुक्त तथा खारा होता है। (५०) नरकपाल उन्हें पकड़कर चड़-चड़ चीरते हैं, जमीन पर घेरकर उन्हें काटते हैं और रोते हुए उन्हें पानी पिलाते हैं। (५१) खारे पानीसे जलते हुए शरीरवाले वे खड़े होकर छायाकी इच्छासे हरिणके जैसे वेगसे असिपत्रवनमें जाते हैं। (५२) वहाँ उनके शरीर पर गिरती हुई तलवारें खन-खन करतो हैं, शक्तियाँ कण-कण करती हैं और भाले मड़-मड़ करते हैं । (५३) हाथ, पैर, नाक, कान, होठ और अंतड़ियाँ आदि सब अंगोंसे छिन्न भिन्न वे मेद, चरबी एवं रुधिरसे सने हुए धरातल पर लोटते हैं। (५४) . तीक्ष्ण और कठोर रस्सीसे बाँधे गये और रोते हुए उन पापियोंको चलाकर आरोहण-अवरोहण कराया जाता है । (५५) कपट करनेवाले लोग यंत्रों में कड़कड़ करके पीसे जाते हैं तो दूसरे भुसुण्ढि (शस्त्रविशेष ) मुद्गर तथा चडक (शस्त्रविशेष) के प्रहारोंसे विनष्ट होते है । (५६) शरीरमें आसक्त दूसरे प्राणियोंके शरीर चड़-चड़ खाये जाते हैं। जबतक नरकका आयुज्य रहता है तबतक वे वेदनाका अनुभव करते हैं। (५७) जिन्होंने पूर्वजन्ममें अधर्म किया होता है वे ऐसे और इनके जैसे दूसरे दुःख परजन्ममें दीर्घ काल तक अनुभव करते हैं । (५८) इस प्रकार तुमने नरकोंमें मांससे उत्पन्न होनेवाले दुःखके बारेमें सुना। अतः दोषोंके मूल रूप इस मांसका तुम परित्याग करो। (५९) जो मनुष्य शील एवं दानसे रहित होने पर भी मांस त्याग करता है वह सद्गति प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है। (६०) जो पाँच अणुव्रतको धारण करनेवाला, तप, नियम एवं शीलसे सम्पन्न तथा जिनशासनमें अनुरक्त होता है वह सुखका धाम रूप देव होता है । (६१)
उत्तम जिनों द्वारा प्रोक्त धर्मका मूल अहिंसा है और अत्यन्त निर्मलतर वह अहिंसा मांसके त्यागसे सम्भव है। (६२) जो भी शबर, पुलिन्द और चाण्डाल मधु एवं मांसका परित्याग करके वस्तुतः दयापरायण बनता है वह पापसे मुक्त होता है। (६३) पापसे वर्जित जीवको देवत्व अथवा राजत्व मिलता है। जिसकी बुद्धिने सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसा जीव क्रमशः सिद्धि भी प्राप्त करता है। (६४)
१. अणन्तरं-मु.।
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