Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 371
________________ पउमचरियं [४५.२जुज्झन्तस्स रणमुहे, पडिओ चलणेसु लच्छिनिलयस्स । भिच्चो है तुह सामिय ! विजाहरवंससंभूओ ॥ २ ॥ चन्दोयरस्स पुत्तो, अणुराहाकुच्छिसंभवो अहयं । तुह आणाएँ समत्थो, नामेण विराहिओ सामि । ॥ ३ ॥ विणओणयस्स सीसे. हत्थं दाऊण लक्षणो भणइ । सर्व पि एवमेयं, वच्छ ! महं मग्गओ ठाहि ॥४॥ एव भणिओ पवुत्तो, एवं खरदूसणं तुम सामी! । घाएहि सेससुहडे, अहयं मारेमि संगामे ॥ ५॥ एव भणिऊण तो सो. दूसणसेन्नस्स अहिमुहीहूओ। अह जुज्झिउँ पवत्तो, विराहिओ निययबलसहिओ॥६॥ नोहा जोहेहि समं, आभिट्टा गयवरा सह गएहिं । जुज्झन्ति रहारूढा, समय रहिएहि रणसूरा ॥ ७॥ एयारिसम्मि जुज्झे, विणिवाइजन्तसुहडसंघाए । लच्छीहरेण समय, आलग्गो दूसणो समरे ॥ ८॥ भणियो य दूसणेणं, मम पुत्तं मारिऊण मज्झत्थं । कन्ताथणाभिलासी!, पाव ! कहि वच्चसे अज्ज ? ॥९॥ ठा-ठाहि सवडहुत्तो, पाव ! तुम सुनिसिएहि बाणेहिं । कन्तावराहकारी, पेसेमि जमालय सिग्धं ॥ १०॥ पडिभणइ लच्छिनिलओ, किं ते भड ! वोक्किएहि बहुएहिं । न यह वच्चामि तहिं, जत्थ गओ नन्दणो तुज्झं ॥ ११ ॥ लच्छीहरेण एन्तो, सरेहि खरदूसणो कओ विरहो । छिन्नधणुहा-ऽयवत्तो, गहो व पडिओ नहयलाओ ॥ १२ ॥ आयड्डिऊण खग्गं, सोमित्ती तस्स पाविओ सिग्धं । खरदूसणो वि समुह, अवट्टिओ असिवरं घेत्त॥ १३ ॥ आमरिसवसगएणं, छिन्नं खग्गेण सुजहासेणं । खरदूसणस्स सीसं, पडियं रत्तारुणच्छायं ॥ १४ ॥ खरदूसणस्स मन्ती, नामेणं खारदूसणो एन्तो । लच्छीहरेण भिन्नो, सरेण मुच्छागयविबुद्धो ॥ १५॥ सिग्घं विराहिएण वि. ते सर्व दूसणस्स निययबलं । निद्दयपहराभियं, खणेण भग्गं निराणन्दं ॥ १६ ॥ तं मारिऊण सत्तं , सहिओ य विराहिएण सोमित्ती । पत्तो रामसयास, पेच्छइ जेटुं सुहपसुतं ॥१७॥ उट्टविऊणाऽऽलत्तो, साह कहिं नणयनन्दिणी सामि । तेण वि सो पडिभणिओ, केण वि मे अवहिया कन्ता ॥ १८॥ युद्ध भूमिमें लड़ते हुए लक्ष्मणके चरणोंमें गिरकर उसने कहा कि हे स्वामो ! विद्याधर कुलमें उत्पन्न मैं आपका सेवक है। (२) हे स्वामी चन्द्रोदरका पुत्र तथा अनुराधाकी कुक्षिसे उत्पन्न मैं नामसे विराधित आपकी आज्ञा मिलने पर इन्हें पराजित करनेमें समर्थ हूँ। (३) विनय से अवनत उसके सिर पर हाथ रखकर लक्ष्मणने कहा कि, हे वत्स कछ ऐसा ही है, फिर भी तुम मेरे आगे मत ठहरो। (४) इस तरह कहे जाने पर उसने कहा कि, हे स्वामी! आप एक खरदषणको मारें। शेष सुभटोंको मैं संग्राममें मारूँगा। (५) ऐसा कहकर विराधित अपनी सेनाके साथ खरदषणके सैन्यके सामने गया और युद्ध करने लगा। (६) योद्धा योद्धाओंके साथ और हाथी हाथियोंके साथ भिड़ गये। यजमें भर रथारूढ रथिकों के साथ जूझने लगे। (७) जिसमें सुभट-समूह मार गिराया जाता है ऐसे इस युद्ध में लक्ष्मण के साथ खरदषण यद्ध करने लगा। () दूषणने कहा कि, अरे पापी! वनके मध्य में रहे हुए (अथवा ध्यानमें लीन) मेरे पत्रको मारकर मेरी पत्नीके स्तनोंकी अमिलाषा रखनेवाला तू आज कहाँ जायगा ? (९) अरे पापी! तू सामने खड़ा रह । कान्ताका अपराध करनेवाला तुझे शीघ्र ही तीक्ष्ण बाणोंसे यमसदन पहुँचाता हूँ। (१०) इस पर लक्ष्मणने कहा सभट । बहत बकनेसे क्या फायदा? जहाँ तेरा पुत्र गया है वहाँ मैं नहीं जाऊंगा। (११) तब लक्ष्मणने बाणोंसे खरदषणको रथहीन बना दिया। कटे हुए धनुष और छत्र वाला वह ग्रहकी भाँति आकाशमेंसे नीचे गिरा। (१२) लण तलवार खींचकर एकदम उसके पास गया। खरदूषण भी उत्तम तलवार लेकर सामने आया। (१३) गुस्से में आयेही लक्ष्मणने सूर्यहास तलवारसे खरदूषणका सिर काट डाला। रक्तकी लाल कान्तिवाला वह नीचे गिरा। (१४) इसके अनन्तर क्षारदूषण नामका खरदूषणका मंत्री आया। मूर्छित होनेके बाद होश में आये हुए उसे लक्ष्मणने मार डाला। विराधितने भी खरदूषणका अपना सारा सैन्य शस्त्रोंकी निर्दय चोटसे क्षणभरमें भग्न करके आनन्दहीन बना दिया। (१६) उस शत्रुको मारकर विराधितके साथ लक्ष्मण रामके पास आया। उसने वहाँ बड़े भाईको मारामसे सोया हुआ देखा । (१७) जगाकर उसने पूछा कि, हे स्वामी ! सीताजी कहा हैं? यह आप कहें। उन्होंने भी प्रत्युत्तरमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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