Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 401
________________ ३४८ पउमचरियं ८ ॥ ९ ॥ १० ॥ ११ ॥ तह वि य वयणेण तुमं, लङ्कापर मेसरं भणसि गन्तुं । सो माणगबियमई, मारुइ ! गाहं न छड्ड ेोइ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, पउमुज्जाणं गओ पवणपुत्तो । नाणाविहतरुछन्नं, अइरम्मं नन्दणं चैव ॥ तत्थ पविट्टो पेच्छइ, सीयं निद्धूमनलणसंकासं । वामकरधरियवयणं, विमुक्ककेसी पगलियंसू ॥ गन्तूण निहुयचलणो, हणुओ तं अङ्गुलीययं सिग्धं । सीयाऍ मुयइ अड्के, संभमहियओ कयपणामो ॥ तं गेण्हिऊण सीया, हरिसवसुब्भिन्नदेहरोमचा । हणुवस्स उत्तरिज्जं परितुट्टा सरयणं देइ ॥ अहियं पसन्नवयणं, सीयं सुणिऊण आगया सिग्धं । मन्दोयरी सहीहिं, परिकिण्णा तं वरुज्जाणं ॥ तो भइ अग्गमहिसी, अम्ह कओ ऽणुग्गहो तुमे परमो । बाले ! भयसु दहमुहं, विमुक्कसोगा सुइरकालं ॥ कुविया जंप सीया, खेयरि ! दइगस्स आगया वत्ता । संपइ परितुट्ठमणा, तेणं चिय पुलइयङ्गी हं ॥ सुणिऊण वयणमेयं मयधूया विम्हयं परं पत्ता । एत्तो विमुक्कसक्का, परिपुच्छइ मारुडं सीया ॥ सो एव भणियमेतो, हगुवो वरकडय - कुण्डलाहरणो । साहेइ कुलं निययं, पियरं जणणि च नामं च ॥ पवणंजयस्स पुत्तो, उयरे च्चिय अञ्जणाऍ संभूओ । सुग्गीवस्स य भिच्चो, अहयं हणुओ त्ति नामेणं ॥ भइ त पवणसुओ, पमो तुह विरहकायरुबिग्गो । खणमवि न उवेइ धिइं, सविभव - सयणा - SSसणे भवणे न सुणइ गन्धब्बकहं, न य अन्नं कुणइ चेव उल्लावं । नवरं चिन्तेइ तुमं, मुणि ब जोगट्टिओ सिद्धि ॥ सुणिऊण वयणमेयं, बाहविमुञ्चन्तबिन्दुनयणजुया । सीया सोगवसगया, पुणरवि परिपुच्छए वत्तं ॥ कत्थ पएसे सुन्दर!, दिट्ठो ते लक्खणेण सह पउमो ! । निरुवहअङ्गोवङ्गो ?, किं व महासोगसन्निहिओ ! ॥ २२ ॥ विज्जाहरेहि किं वा, विवाइए लक्खणे य सोगत्तो । मोत्तूण मज्झ तत्ति, किं दिक्खं चेव पडिवन्नो ? ॥ २३ ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ २० ॥ २१ ॥ अह वा किं मह विरहे, सिढिलीभूयस्य वियलिओ रण्णे । लद्धो भद्द ! तुमे किं, अह अङ्गुलिमुद्दओ एसो ! ॥ २४ ॥ Jain Education International १२ ॥ १३ ॥ - १४ ॥ १५ ॥ For Private & Personal Use Only [ ५३. -- १६ ॥ १७ ॥ अभिमानसे गर्वित बुद्धिवाला वह आग्रह नहीं छोड़ेगा । (८) यह वचन सुनकर हनुमान नाना प्रकारके वृक्षोंसे आच्छन्न तथा नन्दनवनकी भाँति सुरम्य पद्मोद्यानमें गया । (६) वहाँ प्रवेश करके उसने निधूम आग सरीखी, बाएँ हाथ पर मुँह रखे हुई, खुले बालवाली तथा आँसू बहाती हुई सीताको देखा । (१०) धीमी गति से जाकर और प्रणाम करके हनुमानने वह अँगूठी शीघ्र ही सीताकी गोद में डाली । (११) उसे लेकर हर्षवश जिसके शरीर पर रोमांच खड़े हो गये हैं ऐसी सीताने तुष्ट हो हनुमान को स्मृतिचिह्न के रूपमें अपना उत्तरीय दिया । (१२) सीताको अधिक प्रसन्न वदनवाली जानकर सखियोंसे घिरी हुई मन्दोदरी शीघ्र ही उस सुन्दर उद्यानमें आई । (१३) तब पटरानीने कहा कि हम पर तुमने अत्यन्त अनुग्रह किया है। हे बाले ! शोकका त्याग करके चिरकाल पर्यन्त रावणकी तुम सेवा करो । ( १४) इस पर कुपित सीताने कहा कि, हे खेचरी ! अभी पतिका समाचार आया है, उसीसे में पुलकित शरीरखाली हो गई थी । (१५) यह सुनकर मन्दोदरीको अत्यन्त विस्मय हुआ । तब शंकाका परित्याग करके सीताने हनुमानको पूछा । (१६) इस प्रकार कहे जाने पर उत्तम कटक, कुण्डल एवं आभूषणोंसे युक्त हनुमानने अपना कुल, - माता-पिता तथा अपना नाम कहा । (१७) अंजनाके उदरसे उत्पन्न, पवनंजयके पुत्र तथा सुग्रीवके सेवक मेरा नाम हनुमान है । (१८) तब पवनसुतने कहा कि तुम्हारे विरहसे कातर और उद्विन राम ऐश्वर्यपूर्ण शैया एवं आसनवाले भवनमें क्षण भर भी धीरज नहीं धरते । (१६) वे गन्धवोंकी कथा नहीं सुनते और दूसरी बातचीत भी नहीं करते । योगस्थित मुनि जिस तरह सिद्धिका विचार करता है उसी तरह वे भी तुम्हारा विचार करते हैं । (२०) यह कथन सुनकर गिरते हुए आँसुओंसे युक्त आँखोंवाली तथा शोकसे वशीभूत सीताने पुनः समाचार पूछा कि, हे सुन्दर ! किस प्रदेशमें तुमने लक्ष्मणके साथ रामको देखा था ? अत्यधिक शोकसे युक्त वे अंग- उपांगसे अक्षत तो हैं न ? (२१-२२ ) अथवा विद्याधरोंके द्वारा लक्ष्मणके मारे जानेसे शोकार्त उन्होंने मेरी चिन्ताका त्याग करके क्या दीक्षा अंगीकार की है ? (२३) अथवा मेरे विरह में शिथिल बने हुए वे क्या अरण्यमें चले गये हैं ? हे भद्र! तुम्हें यह अंगूठी कैसे प्राप्त हुई है ? (२४) www.jainelibrary.org

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