Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 411
________________ पउमचरियं सुणिऊण तुज्झ वत्त, परं पमोयं गया जणयधूया । पुच्छइ पुणो पुणो वि य, हरिसवसुभिन्नरोमचा ॥ ७॥ पवणतणएण सीया, नं सिट्ठा राहवस्स जीवन्ती । तं हरिसवसगओ च्चिय, न माइ नियएसु अङ्गेसु ॥ ८॥ आसासिओ य पउमो, अहियं चूडामणीऍ गहियाए । अमएण व फुसियङ्गो, साभिन्नाणाऍ वत्ताए ॥९॥ अन्नं पिसुणसु सामिय!, वयणं नं तुज्झ तीऍ संदिटुं । जइ नाऽऽगच्छसि तरिय, तो मरणं मे धुवं एत्थं ॥१०॥ चिन्तासागरवडिया, तह विरहविसंतुला जणयधूया। दुक्खं गमेइ दियहा. रक्खसजवईस पडिरुद्धा ॥११॥ सोऊण पउमनाहो, साहिन्नाणं पियाऍ पडिवत्तिं । सोगसमुच्छयहियओ, अहियं चिय दुक्खिओ जाओ॥१२॥ चिन्तेऊण पवत्तो, अहोमुहो दीहमुक्कनीसासो । निन्दइ पुणो पुणो च्चिय, निययं दुक्खासयं जीयं ॥ १३ ॥ तं एव चिन्तयन्तं, सोमित्ती भणइ राहवं एत्तो। किं सोयसि देव! तुमं, देहि मणं निययकरणिजे ॥ १४ ॥ कजं तु दीहसुत्तं, लक्खिज्जइ कइवरस्स चित्तेणं । वाहरिओ वि चिरावइ, सो वि हुभामण्डलो सामि। ॥ १५॥ अम्हेहि निच्छएणं, गन्तवं दहमुहस्स निययपुरी । न य बाहासु महाजस !, उत्तरिउ तीरए उदही ॥ १६ ॥ अह भणइ सीहणाओ, लक्खण ! किं एव भाससे गरुवं । सबेण वि कायब, अप्पहियं चेव पुरिसेणं ॥ १७ ॥ नं मारुईण लक्षा, भग्गा वरभवण-तुङ्गपायारा । तं रुटे दवयणे, होहइ संगाममरणऽम्हं ॥ १८ ॥ तं भणइ चन्दरस्सी, किं व गओ सीहनाय ! संतासं? । को रावणस्स बीहह, संपइ आसन्नमरणस्स?॥ १९ ॥ अम्ह बले विक्खाया, अत्थि भडा खेयरा महारहिणो । बल-सत्ति-कन्तिजुत्ता, बहवे संगामसोडीरा ॥ २० ॥ घणरइ-भूय-निणाओ, गयवरघोसो तहेव कूरो य । केलीगिलो य भीमो, कुण्डो रवि-अङ्गओ चेव ॥ २१ ॥ नल-नील-विज्जुवयणो, मन्दरमाली तहा असणिवेगो । राया य चन्दजोई, सीहरहो सायरो धीरो ॥ २२ ॥ आपका समाचार सुनकर सीता बहुत ही आनंदित हुई और हर्षसे रोमांचित वह पुनः पुनः पूछने लगी। (७) हनुमानने रामसे जीती हुई सीताके बारे में जो कहा उससे अत्यन्त आनन्द-विभोर वे अपने अंगोंमें नहीं समाते थे।(८) ग्रहण किये गये चूड़ामणिसे राम अत्यधिक आश्वस्त हुए। अभिज्ञानयुक्त समाचार पाकर अमृतने मानो शरीरको छू लिया हो इस तरह वे प्रफुल्लित हुए। (६) हनुमानने आगे कहा कि, हे स्वामी! आपके लिए उन्होंने जो दूसरा सन्देश दिया है वह भी आप सुनें। यदि आप जल्दी नहीं आयेंगे तो मेरी मृत्यु यहाँ निश्चित है। (१०) चिन्ता-सागरमें पड़ी दुई, आपके विरहसे व्याकुल तथा राक्षसयुवतियोंसे घिरी हुई सीता दुःखसे दिन बिताती है। (११) अभिज्ञानके साथ प्रियाका समाचार सुनकर सतत शोकसे आच्छादित हृदयवाले राम और भी अधिक दुःखित हुए। (१२) नीचा मुँह करके दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए राम चिन्ता करने लगे और दुःखसे परिपूर्ण अपने जीवनकी पुनः पुनः निन्दा करने लगे। (१३) तब इस प्रकार सोचते हुए रामसे लक्ष्मणने कहा कि, हे देव ! आप शोक क्यों करते हैं? अपने कर्तव्यमें आप मन लगाइये। (१४) हे स्वामी! कपिवर सुग्रीवके मनसे कार्य लम्बा दिखाई पड़ता है और कहलाने पर भी वह भामण्डल देर कर रहा है। (१५) हमें अवश्य ही रावणकी अपनी नगरीमें जाना चाहिए, परन्तु हे महायश ! समुद्र हाथोंसे तैरकर पार नहीं किया जा सकता। (१६) इस पर सिंहनाद नामक खेचरने कहा कि, हे लक्ष्मण ! ऐसी अभिमानपूर्ण कठिन बात तुम क्यों कहते हो! सब पुरुषोंको जिसमें अपना हित हो वह करना चाहिए। (१७) उत्तम भवनों और ऊँचे प्राकारसे युक्त लंकाका हनुमानने जो विनाश किया है उससे कुपित रावणके साथके संग्राममें हमारा मरण होगा। (१८) इस पर उसे चन्द्ररश्मिने कहा कि, हे सिंहनाद ! क्या तुम डर गये? जिसका समीपमें मरण है ऐसे रावणसे कौन डरता है ? (११) हमारी सेनामें बल, शक्ति एवं कान्तिसे युक्त तथा संग्राममें वीर बहुतसे महारथी और विख्यात विद्याधर सुभट हैं। (२०) घनरति, भूतनिनाद, गजवरघोष, कर, केली, गिल, भीम, कुण्ड, रवि, अंगद, नल, नील, विद्युद्वदन, मन्दरमाली, अशनिवेग, राजा चन्द्रज्योति, सिंहरय, धीरसागर, वज्रदंष्ट्रा, उल्कालांगूल, वीर दिनकर, उज्ज्वलकीर्ति हनुमान और भामण्डल राजा हैं। इनके अतिरिक्त महेन्द्रकेतु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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