Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 414
________________ ५५. बिभीसणसमागमपव्वं एत्तो लंकाहिवई, संगामसमुज्जयं पणमिऊणं । नयविहिवियबुद्धी, बिभीसणो भणइ निसुणेहि ॥ ४ ॥ तुह पहु ! परिट्ठिया इह, इन्दस्स व संपया महाविउला । ससि-सङ्ख-कुन्दधवलो, भमइ जसो तिहयणं सयलं ॥ ५॥ महिलाहेउं सामिय!, मा नेहि परिक्खयं खणेण तुमं । अप्पेहि जणयतणया, इमाएँ किं कारणं सिद्धं ॥ ६ ॥ न य हवइ एत्थ दोसो, हवइ गुणो केवलो तिहुयणम्मि । सुहसायरे निमम्गो, भुञ्जसु विज्जाहरमहिति ॥ ७॥ सुणिऊण वयणमेय, आरुटो इन्दई भणइ एवं । को तुज्झ आहियारो, जेण समुल्लवसि एरिसर्य? ॥ ८ ॥ जइ वेरियाण बीहसि, अहियं संगामकायरो सि तुमं । निक्खित्तसत्थदण्डो, पविससु भवणोदरं सिग्धं ॥ ९ ॥ निवडन्तसत्थनिवहे, संगामे मारिऊण अह सतुं । खग्गेणाऽऽयड्डिज्जइ, लच्छी वीरेण निक्खुत्तं ॥ १० ॥ लद्धण उत्तम चिय, महिलारयणं इमं वसुमईए । किं मुच्चइ दहवयणो, जहा तुमे भासियं वयणं ॥ ११ ॥ भणिओ बिहीसणेणं, निब्भच्छणकारणं तओ वयणं । पुत्तत्तणेण जाओ, वइरी लंकाहिवस्स तुमं ॥ १२ ॥ भवणे समुट्ठियं चिय, अग्गी पूरेसि इन्धणेण तुमं । अहियं हियं ति मन्नसि, जंपन्तो एरिसं वयणं ॥ १३ ॥ कश्चणघणपायारं, लङ्का लच्छीहरेण जाव न वि । भज्जइ सरेसु खिप्पं, ताव समप्पेहि वइदेहिं ॥ १४ ॥ वज्जावत्तधणुधरं, रुसियं चिय राहवं समरमज्झे । लच्छीहरेण समयं, तुब्भे न य जोहिउं सक्का ॥ १५ ॥ जे तस्स गया पणई, सुहडा कइदीववासिणो बहवे । माहिन्द-मलय-तोरा, सिरिपबय-हणुरुहाईया ॥ १६ ॥ केलीगिला य रयणा, तह य वेलंधरा य नहतिलया । सञ्झाराया य तहा, दहिमुहदीवासया चेव ॥ १७ ॥ एवं पभासयन्तं, बिभीसणं कोहपूरियामरिसो । आयड्डिऊण खग्गं, दहवयणो उज्जओ हन्तुं ॥ १८ ॥ अमरिसवसंगएणं, तेण वि उम्मूलिओ रयणथम्भो । काऊण महाभिउडी, जेट्टस्स अहिडिओ पुरओ ॥ १९ ॥ उद्यत लंकेश रावणको प्रणाम करके नयविधिमें कुशल बुद्धिवाले विभीषणने कहा कि आप सुनें। (४) हे प्रभो! इन्द्रके जैसी विपुल सम्पत्तिने आपके पास आश्रय लिया है और चन्द्रमा, शंख एवं कुन्द पुष्पके जैसा आपका धवल यश सारे त्रिभुवनमें व्याप्त है। (५) हे स्वामी ! एक स्त्रीके लिए क्षणभरमें तुम विनाश मत लाओ। जनकतनया सीताको दे दो। इससे कौनसा कार्य सिद्ध हुआ? (६) ऐसा करने में कोई दोष नहीं होगा, बल्कि त्रिभुवनमें केवल गुण ही फैलेगा। सुखसागरमें निमग्न हो तुम विद्याधरोंके महान् ऐश्वर्यका उपभोग करो। (७) यह वचन सुनकर कुपित इन्दजितने कहा कि तुम्हारा ऐसा कौन-सा अधिकार है जिससे तुम इस तरह बकबक करते हो ? (5) यदि तुम शत्रुओंसे डरते हो और संग्रामसे बहुत कायर हो गये हो तो शस्त्र एवं सैन्यका परित्याग करके धरके भीतर जल्दी ही घुस जाओ। (६) निश्चय ही, गिरते हुए शस्त्रसमूहवाले युद्ध में शत्रुको मारकर ही वीर पुरुष तलवारसे लक्ष्मीको आकर्षित करता है। (१०) पृथ्वीपरके इस उत्तम महिलारत्नको पाकर उसे क्या रावण, जैसा तुमने वचन कहा उस तरह, छोड़ दे ? (११) तब विभीषणने अवहेलना करनेवाला वचन कहा कि पुत्र रूपसे पैदा होनेपर भी तू रावणका वैरी हुआ है। (१२) मकानमें आग लगनेपर तू इंधन डालता है। ऐसा वचन कहनेवाला तू अहितको हित मानता है। (१३) जबतक लक्ष्मण सोनेके बने हुए सघन प्राकारवाली लंकाको बाणोंसे नहीं तोड़ता तबतक सीताको सौंप दो। (१४) वावर्त धनुषको धारण करनेवाले रुष्ट राम और लक्ष्मणके साथ तुम युद्धभूमिमें लड़नेके लिए समर्थ नहीं हो। (१५) हे दशमुख ! कपिद्वीपवासी बहुत-से सुभट, महेन्द्र, मलय, तीर, श्रीपर्वत, हनुरुह आदि तथा केलिकिल, रत्न, वेलन्धर, नभस्तिलक, सन्ध्याराग तथा दधिमुख आदि द्वीपाधिप उनकी शरणमें गये हैं। (१६-१७) इस प्रकार कहते हुए विभीषणको गुस्सेसे भरा हुआ रावण तलवार खींचकर मारनेके लिए उद्यत हुआ। (१८) क्रोधके वशीभूत उसने भी रत्नका स्तम्भ उखाड़ लिया और भौहें चढ़ाकर बड़े भाईके सामने खड़ा हुआ। (१६) युद्धके १. तणयं-प्रत्य.। २. अग्गि--प्रत्य० । ३. लवं--प्रत्यः । ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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