________________
३७३
५९.४०]
५९. विज्जासन्निहाणपव्वं कप्पेऊणं तस्स वि, हणुएणं शत्ति धणुवरं छिन्नं । उक्कत्तियं च कवयं, नज्जइ पोराणयं वत्थं ॥ २४ ॥ रुट्ठो य जम्बुमाली, अन्नं आबन्धिऊण सन्नाह । पहरइ सरेसु हणुयं, देहे नीलुप्पलाभेसु ॥ २५ ॥ पवणसुएणं तत्तो, सोहसयं सट्ठिसंजुयं मुक्कं । दाढाकरालवयणं, ललन्तनीहं जलियनेत्तं ॥ २६ ॥ तं केसरीहि सेन्नं, विद्धत्थं गय-तुरङ्ग-पाइक्कं । संगामपराहुत्तं, दट्ठण महोयरो कुद्धो ॥ २७ ॥ नाव य महोयरेणं, समयं हणुयस्स वट्टए जुझं। ताव य निसायरेहि. निवारिया केसरी सबै ॥ २८ ॥ काऊण वसे सीहा, समुट्ठिया रक्खसा समन्तेणं । मुञ्चन्ताउहनिवहं, उवरिं हणुयस्स ते कुविया ॥ २९ ॥ ते आउहसंघाया, मुक्का हणुयस्स रक्खसभडेहिं । समणस्स जहुक्कोसा, न कुणन्ति मणस्स परितावं ॥ ३० ॥ रयणियरवेढियं तं, दट्टण कइद्धया महासुहडा । गय-तुरयसमारूढा, समुट्टिया पवणपरिहत्था ॥ ३१ ॥ पीइंकरो सुसेणो. नलो य नीलो विराहिओ चेव । संतावो सोहकडी, रविजोई अइबलो सुहडो ॥ ३२ ॥ जम्बूणयपुताई, रहेसु गय-तुरय-सीहजुत्तेसु । हणुयस्स सत्तुसेन्नं, जोहेऊणं समाढत्ता ॥ ३३ ॥ निद्दयपहराभियं, वाणरसुहडेसु रक्खसाणीयं । भग्गं परीसहेहि व, चित्तं असमत्थजोइस्स ॥ ३४ ॥ दट्ठण भाणुकण्णो, निययबलं वाणरेसु भज्जन्तं । कुविओ तिसूलपाणी, अहिमुहहूओ रिउभडाणं ॥ ३५ ॥ दट्टण य एजन्तं, वीरं रणसत्ति-कन्तिदिप्पन्तं । सुहडा सुसेणमाई, तस्स ठिया अभिमुहा पुरओ ॥ ३६ ॥ नामेण चन्दरस्सी, चन्दाभो चेव तह य जसकन्तो । रइवद्धणो य अङ्गो, सम्मेओ अङ्गओ चेव ॥ ३७॥ कुन्तो बली तुरङ्गो, चन्दो ससिमण्डलो सुसारो य । रयणनडी जयनामो, वेलक्खो वीवसंतो य ॥ ३८ ॥ एए अन्ने य बहू, सुहडा कोलाहलाइबलसहिया । जोहन्ति भाणुकण्णं, सबल-सर-झसरघाएसु ॥ ३९ ॥ अह ते वाणरसुहडा, रयणासवनन्दणेण रुटेणं । दरिसणआवरणीए. विज्जाए थम्भिया सबे ॥ ४० ॥
हनुमानने जल्दी ही उत्तम धनुप तोड़ डाला। उसका छिन्न भिन्न कवच तो पुराने वस्त्र-सा ज्ञात होता था। (२४) रुष्ट जम्बूमाली दूसरा कवच बाँधकर नीलकमलकी-सी कान्तिवाले हनुमानके शरीर पर बाणोंसे प्रहार करने लगा। (२५) तब हनुमानने दाँतोंसे भयंकर मुखवाले, जीभ लपलपाते और जलती आँखोंवाले एक सौ साठ सिंहोंसे युक्त शस्त्र फेंका । (२६) हाथी, घोड़े और प्यादोंसे युक्त उस सैन्यको सिंहों द्वारा विध्वस्त और युद्धसे पराङ्मुख देख महोदर क्रुद्ध हुआ। (२७) इधर जब महोदरके साथ हनुमानका युद्ध हो रहा था तब राक्षसोंने सब सिंहोंको रोक दिया। (२८) सिंहोंको बसमें करके चारों ओरसे राक्षस उठ खड़े हुए। कुपित वे हनुमानके ऊपर शस्त्र-समूह छोड़ने लगे। (२६) जैसे कटुवचन श्रमणके मनमें परिताप पैदा नहीं करते वैसे ही राक्षस-सुभटों द्वारा फेंके गये शस्त्रसंघात हनुमानके मनमें परिताप पैदा नहीं करते थे। (३०) राक्षसों द्वारा उसे घिरा देख प्रवण एवं दक्ष कपिध्वज महासुभट हाथी और घोड़ों पर सवार हो लड़नेके लिए तैयार हुए। (३१) प्रियंकर, सुषेण, नल, नील, विराधित, संताप, सिंहकटि, रविज्योति, सुभट अतिबल, जाम्बूनदके पुत्र आदि हाथी, घोड़े तथा सिंहोंसे जुते हुए रथोंमें सवार हो हनुमानके लिए शत्रुसैन्यसे युद्ध करने लगे। (३२-३३) असमर्थ योगीका चित्त जिस प्रकार परीषहोंसे भग्न होता है उसी प्रकार वानर सुभटके निर्दय प्रहारोंसे पीटी गई राक्षस-सेना भग्न हुई। (३४) वानरों द्वारा अपने सैन्यका विनाश देखकर कुपित भानुकणं हाथमें त्रिशूल धारण करके शत्रुके सुभटोंके सम्मुख उपस्थित हुआ। (३५) युद्ध करनेकी शक्ति और कान्तिसे देदीप्यमान उस वीरको आते देख सुषेण आदि सुभट उसका सामना करनेके लिए आगे आये । (३६) चन्द्ररश्मि, चन्द्राभ, यशस्कान्त, रतिवर्धन, अंग, सम्मेत, अंगद, कुन्त, वली, तुरंग, चन्द्र, शशिमण्डल, सुसार, रत्नजटी, जय, वैलक्ष्य तथा विवस्वान्-कोलाहल करते हुए तथा अत्यन्त बलसे युक्त ये तथा दूसरे बहुत-से सुभट सव्वल, शर एवं झसरके प्रहारोंसे भानुकर्णके साथ युद्ध करने लगे । (३७-३९) रत्नस्रवाके पुत्र कुम्भकर्णने रुष्ट हो दर्शनावरणीया नामकी विद्यासे उन सब वानर सुभटोंको निश्चेष्ट कर दिया। (४०) निद्रासे घूमती हुई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org