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५५.५२]
५५. बिभीसणसमागमपव्वं दट्ठण गिरी हेमं, कुणइ विरोहं सहोयरेण समं । लोभमहागहगहिओ, जाओ रिखुसरिसपरिणामो ॥ ३७॥ अन्नं पि उवक्खाणं, कोसम्बीए महाधणो नाम । वणिओ कुरुविन्दा से, महिला पुत्ता य दो तस्स ॥ ३८ ॥ अहिदेवमहीदेवा, परलोयं पत्थिए तओ पियरे । सधणा य गया दोन्नि वि, परकूलं जाणवत्तेणं ।। ३९ ॥ भण्डेण तेण रयणं, एक्कं घेत्तण पडिनियत्ता ते। इच्छन्ति एक्कमेकं, हन्तुणं तिबलोहिल्ला ॥ ४० ॥ आगन्तूण य सगिह, जणणीऍ समप्पियं तु तं रयणं । सा वि य विसेण इच्छइ, घाएउ अत्तणो पुत्ते ॥ ४१ ॥ रुटेहि तेहि रयणं, छूढं जउणानईएँ सलिलम्मि । तं धीवरेण लद्ध, पुणरवि ताणं घरे दिन्नं ॥ ४२ ॥ अह ते जणणीऍ सम, सामत्येऊण जायसंवेगा। संचुण्णिय तं रयणं, सबे विलयन्ति पबज ॥ ४३ ।। तम्हा लोहेण फुडं, हवइ विरोहो सहोयराणं पि । जह गिरि-गोभूईणं, तह अन्नाणं पि बहुयाणं ॥ ४४ ॥ सुणिऊण उवक्खाणं, एयं मन्तीण साहियं रामो । पडिहारं भणइ तओ, आणेहि बिभीसणं तुरियं ॥ ४५ ॥ पडिहारेण य सिट्ठो, बिभीसणो आगओ पउमनाहं । पणमइ पहट्टमणसो, तेण वि अवगूहिओ धणियं ॥ ४६॥ मिलिए बिहोसणभडे, जाओ च्चिय वाणराण आणन्दो। ताव य समत्तविज्जो, पत्तो भामण्डलो सिग्धं ॥ ४७ ॥ रामेण लक्खणेण य, अहियं संभासिओ जणयपुत्तो । सुग्गीवमाइएहिं, अन्नेहिं वाणरभडेहिं ॥ ४८ ।। तत्थेव हंसदीवे, दियहा गमिऊण अट्ठ बलसहिया । लङ्काहिमुहा चलिया, सन्नद्धा राम-सोमित्ती ॥ ४९ ॥ अह जोयणाणि वीसं, रुद्धं तं तीऍ समरभूमीए । न य नज्जइ परिमाणं, आयामस्सातिदीहस्स ॥ ५० ॥ नाणाविहकयचिन्धं, नाणाविहगय-तुरङ्ग-पाइकं । दिट्ट चिय एजन्त, वाणरसेन्नं निसियरेहिं ॥ ५१ ॥
अह भाणुसरिसवण्णा, मेहनिहा गयणवल्लभा कणया । गन्धबगीयनयरा, सूरा तह कप्पवासी य ॥ ५२ ॥ दिया । (३६) गिरिभूतिने सोना देखकर सहोदर भाईके साथ विरोध किया। लोभरूपी महाग्रहसे प्रस्त वह शत्रुके जैसे परिणामवाला हो गया । (३७)
दूसरी भी एक कहानी है। कौशाम्बी नगरीमें महाधन नामका एक वणिक् था। कुरुविन्दा उसकी पत्नी थी। उसके दो पुत्र थे। (३८) पिताके परलोक जाने पर अहिदेव और महीदेव दोनों बेचनेकी सामग्री लेकर जलयानसे विदेशमें गये । (३६) उन पदार्थोंसे एक रत्न लेकर वे वापस लौटे। तीव्र लोभवश वे एक-दूसरेको मारनेके लिए सोचने लगे। (४०) अपने घर पर आकर उन्होंने अपनी माताको वह रत्न दिया। वह भी विष द्वारा अपने पुत्रोंको मारना चाहती थी। (४१) रुष्ट उन्होंने वह रत्न यमुना नदीके जलमें फेंक दिया। धीवरने वह रत्न पाया। उसने पुनः उनके घरमें दिया । (४२) माताके साथ परामर्श करके वैराग्ययुक्त उन्होंने वह रत्न चूर-चूर कर डाला। सबने प्रव्रज्या ली। (४३) अतः गिरिभूति
और गोभूतिकी तरह दूसरे भी बहुतसे सगे भाइयों में लोभके कारण अत्यन्त विरोध होता है। (४४) _ मंत्रियों द्वारा कहा गया यह आख्यान सुनकर रामने प्रतिहारीसे कहा कि जल्दी ही विभीषणको लिवा लायो । (४५) प्रतिहारीके द्वारा कहा गया विभीषण रामके पास आया और मनमें प्रसन्न हो प्रणाम किया। उन्होंने भी उसे गाढ़ आलिंगन दिया। (४६) विभीषणके मिलनेपर वानरोंको आनन्द हुआ। उसी समय विद्या जिसने सिद्ध की है ऐसा भामण्डल भी शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा। (४७) राम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदि दूसरे वानर-सुभटोंने जनकपुत्र भामण्डलके साथ खूब बातें की। (४८) उसी हँसद्वीपमें आठ दिन बिताकर राम एवं लक्ष्मण तैयार हो सेना के साथ लंकाकी ओर चले। (४६) उस समरभूमिके बीस योजन उस सेनाने रोके। उस रणभूमिके अतिदीर्घ विस्तारका तो परिमाण भी ज्ञात नहीं होता था। (५०) नानाविध चिह्न किये हुए नानाविध हाथी, घोड़े तथा पदातियोंसे युक्त वानर सैन्यको राक्षसोंने आते देखा । (५१)
सूर्यके सदृश वर्णवाले मेघनिभ, गगनवल्लभ, कनक, गन्धर्व गीतनगर, सूर्य, कल्पवासी, सिंहपुर, शोभ, गीतपुर, १. जाओ य रिवूसपरिणामो-मुः।
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