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५३.६५]
५३. हणुवलशनिग्गमणपन्वं एयन्तरम्मि पत्त, महाबलं उत्थरन्तपाइकं । वेदेइ पवणपुत्, दिवायरं चेव घणवन्दं ॥ ८१ ॥ सर-शसर-सत्ति-सबल, मुश्चन्ति भडा समच्छरुच्छाहा । सिरिसेलस्स अभिमुहा, सामियकजज्जया सबे ॥८२॥ तं आउहसंघाय, विनिवारेऊण अश्रणातणओ। पहणइ रक्खसमुहडा, फलिहसिला-सेल रुक्खेहिं ॥ ८३ ॥ एकण तेण सेणिय !, उहरहिएण तं बलं सबं । हय-
विह्य-विप्परद्धं, जीवियलोलं अह पलाणं ॥ ८४ ॥ भवणाणि तोरणाणि य, अट्टालयविविहचित्ततुङ्गाई। चूरेइ पवणपुत्तो, अणेयपासायसिहराई ॥ ८५ ॥ चरणेसु करयलेसु य, गयापहाराहयाणि सबाणि । निवडन्तरयणकूडाणि ताणि कणकणकणन्ताई ॥ ८६ ॥ बवावायसमुट्ठिय-रएण बहुवण्णपसरमाणेणं । इन्दाउहखण्डाणि व, कयाणि विउले गयणमग्गे ॥ ८७ ।। अवि धाह-रुण्ण-विलविय-जुवईजण-बालकाहलपलावा । सुबन्ति भउबिग्गा, लोया किं किं ति बंपन्ता ! ॥ ८८॥ खम्भे हन्तूण गया, तुरया गलरजया वि तोडेन्ति । हिण्डन्ति नयरमज्झे, मेसन्ता जणवयं बहुसो ॥ ८९॥ लकापुरीऍ एवं, भञ्जन्तो भवणसयसहस्साई । हणुओ दढववसाओ, संपत्तो रावणं नाव ॥ १० ॥ दट्टण रक्खसवई, निययपुरि भग्गभवणउजाणं । जंपइ रोसवसगओ, मह वयणं वो निसामेह ॥ ९१ ॥ मय-मालवन्त-तिसिरा, सुय-सारण-वइरदाढ-ऽसणिवेगा!| कुम्भ-निसुम्भ-विहीसण-हत्थ-पहत्थाइया! सबे।॥ ९२ ॥ जो कहलासुद्धरणे, आसि जसो मज्श सयलतेलोके । इह भञ्जन्तेण पुरी, सो फुसिओ पवणपुत्त्रेणं ॥ ९३ ॥ वाणरमलिउज्जाणं, न सुहं दट्ठपि दुम्मणं लई । परपुरिसकरकयम्गह-विमणं व पियं पिय यमेणं ॥ ९४ ॥ जम-वरुण-इन्दमाई, जिया अणेया मए महासुहडा । तं वाणराहमेणं, इमेण कह संपयं छलिओ ! ॥१५॥
तब आक्रमण करनेवाले पैदल सैनिकोंकी बड़ी भारी सेना वहाँ आ पहुँची। जिस तरह बादल सूर्यको घेर लेता है उसी तरह उसने हनुमानको घेर लिया। (८१) अपने मालिकका कार्य करनेमें तत्पर और उत्साहसे युक्त सभी सुभट हनुमानके सामने बाण, भसर, शक्ति एवं सब्बल छोड़ने लगे। (८२) उस आयुधसमूहका निवारण करके हनुमान स्फटिक-शिला, शैल और वृक्षोंसे राक्षससुभटोको मारने लगा। (८३) हेरेणिक ! आयुधरहित उस अकेलेने उस सारी सेनाको क्षत-विक्षत करके परेशान कर दिया। वह अपने प्राण बचाकर भागी। (८४) तब हनुमानने भवन, ते.रण, विविध प्रकारकी एवं विलक्षण और ऊँची अटारियाँ तथा अनेक महलोंके शिखर तोड़ डाले। (८५) पैरोंसे, हाथोंसे तथा गदाके प्रहारसे चोट खाकर कण-कण आवाज करते हुए सब रत्नशिखर नीचे गिर पड़े। (८६) जाँपके पटकनेसे उठी और फैली हुई नाना वर्णकी रजने विशाल आकाशमार्गमें मानो इन्द्रधनुषकी रचना कर डाली। (८७) दीनभावसे रुदन और विलाप करनेवाली युवतियों और बालकोंकी अव्यक्त ध्वनिसे युक्त प्रलाप करनेवाले भयोद्विग्न लोग 'क्या है? क्या है ?'- ऐसा कहते हुए सुनाई देने लगे। (८) हाथियोंने खम्भोंको तोड़ डाला, घोड़ोंने गलेकी रस्सी तोड़ डाली। लोगोंको बहुत भयभीत करते हुए वे नगरके बीच घूमने लगे।(8)
इस प्रकार लंकापुरीमें लाखों भवनोंको तोड़कर दृढ़निश्चयवाला हनुमान जहाँ रावण था वहाँ पहुँचा। (१०) अपनी नगरीके भवन एवं उद्यानोंका विनाश देख गुस्से में आया हुआ रावण कहने लगा कि मय, मालवन्त, त्रिशिर, शुक, सारण, वजदंष्ट्रा, अशनिवेग, कुम्भ, निशुम्भ, विभीषण, हस्त, प्रहरत आदि तुम सब मेरा कहना सुनो । (११-१२) कैलास पर्वतको उठानेसे मेरा जो यश तीनों लोकोंमें हुआ था उसे आज नगरीका विनाश करनेवाले हनुमानने पोंछ डाला है। (३) परपुरुषके हाथसे पकड़ी जानेके कारण विषण्ण प्रियाकी भाँति वानरके द्वारा तहस नहस किये गये उद्यानवाली दीन लंकाको मैं आनन्दके साथ देख नहीं सकता । (६४) यम, वरुण, इन्द्र आदि अनेक महान सुभटोंको मैंने जीता है। उसे इस अधम वानरने इस समय कैसे ठग लिया ? (६५) अतः महाभेरि बजाओ और जल्दी ही अजित नामक रथ हाजिर करो।
१. पुरि-प्रत्य०। २. पिययमस्स-प्रत्य० ।
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