Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 399
________________ ३४६ पउमचरियं [५२.६. दट्टण अभिमुहं ते, मारुइसुहडा वराउहसमम्गा । अह जुज्झिउं पयत्ता, समयं पडिवक्खसेन्नेणं ॥९॥ तं रणमुहं पयत्त, अहवा किं जंपिएण बहुएणं ? । नह तरखणम्मि जायं, नच्चन्तकबन्धपेच्छणयं ॥ १०॥ एयारिसम्मि जुज्झे. बट्टन्ते सुणिसिएण चक्केणं । छिन्नं सिरं च सहसा, मारुह्णा बज्जवयणस्स ॥ ११ ॥ दट्टण पिइवहं सा, अह लकासुन्दरी ससोगमणा । कोवं समुबहन्ती, समुट्ठिया रहवरारूढा ॥ १२॥ ठा-ठाहि सवडहुत्तो, मह पियरं मारिऊण हणुव ! तुम । जेण सरघायभिन्नं, पेसेमि जमालय सिग्धं ॥ १३ ॥ सा जाव मुश्चइ सरे, मारुहणा ताव धणुवरं छिन्नं । पेसेइ तओ सत्ती, सा वि य बाणेसु पडिरुद्धा ॥ १४ ॥ विज्जाबलसन्निहिया, मोग्गर-सर-झसर-भिण्डमालाई । मुश्चइ सिरिसेलोवरि, रुसिया विज्जुब चलहत्था ॥ १५ ॥ अह तं आउहनिवह, हणुओ छेत्तण निययबाणेहिं । पेच्छइ सिरिसमरूवं, अह लंकासुन्दरी समरे ॥ १६ ॥ आयण्णपूरिएहिं, कडक्खदिट्ठीवियारनिसिएहिं । तह इयरेहि न भिन्नो, अहयं जह मयणवाणेहिं ॥ १७ ॥ समरे वरं खु मरणं, एत्थं चिय सरसहस्सभिन्नस्स । न य सुरलोगे वि महं, जीयं तु इमाएँ रहियस्स ॥ १८ ॥ एवमणस्स य तो सा, मयणेण व चोइया पलोयन्ती । हणुयं सुन्दररूवं, सहसा आयल्लयं पत्ता ॥ १९ ॥ चिन्तेइ जइ इमेणं, समयं भोगे न भुञ्जिमो एत्थं । तत्तो दूरेण महं, इहलोगो निप्फलो होइ ॥ २० ॥ पप्फुल्लकमलवयणा. तं लकासुन्दरी भणइ एत्तो । देवेसु वि न जिया है, तुमेव परिणिज्जिया सामि ! ॥ २१ ॥ एत्तो समागया सा, हणुवेण निवेसिया निए अङ्के । कुसुमाउहेण व रई, धणियं अवगृहिया बाला ॥ २२ ॥ कुबन्ति समुल्लावं, दोणि वि घणपीइसंपउत्ताई । दिवसावसाणसमए, ताव य अत्थं गओ सूरो ॥ २३ ॥ तत्तो गयणुद्देसे. विजाए थम्भिया घणाईया । नयरं च कयं विउलं, सुरपुरिसरिसं मणभिरामं ॥ २४ ॥ वसिऊण तत्थ रति, बलेण समय पहायसमयम्मि । पवणतणओ पयट्टो, तं लेकासुन्दरी भणइ ॥ २५ ॥ सैन्यके साथ लड़ने लगे। (६) बहुत कहनेसे क्या फायदा ? वह युद्ध ऐसा हुआ कि तत्क्षण ही नृत्य करते हुए धड़ोंसे प्रेक्षणीय बन गया। (१०) जब ऐसा युद्ध हो रहा था तब सहसा अतितीक्ष्ण चक्रसे मारुतिने वनमुखका सिर काट डाला। (११) पिताका वध देख मनमें शोकयुक्त लङ्कासुंदरी क्रुद्ध हो उठी और रथपर सवार हुई । (१२) 'हे हनुमान ! तूने मेरे पिताको मारा है। मेरे सामने खड़ा रह, जिससे वागोंके आघातसे विदारित करके तुझे यमसदन पहुँचा दूँ। (१३) ऐसा कहकर जबतक वह बाण फेंकती है तबतक तो हनुमानने उसका धनुप काट डाला। तब उसने शक्ति फेंकी, किन्तु वह बाणोंसे रोक दी गई। (१४) विद्याबलसे युक्त ओर बिजलीके समान चपल हाथोंवाली वह क्रुद्ध हो हनुमानके ऊपर मुद्गर, बाण, मसर, भिन्दिपाल आदि शन फेंकने लगी। (१५) उन आयुधोंको अपने बाणोंसे काटकर हनुमानने युद्ध में लक्ष्मीके समान रूपवाली लङ्कासुंदरीको देखा। (१६) कानतक खेंचे हुए तथा दृष्टिविकारजन्य तीक्ष्ण कटाक्षरूपी मदनबाणोंसे मैं जितना विदारित हुआ हूँ उतना दूसरे बाणोंसे नहीं। (१७) हज़ारों बाणोंमें क्षत-विक्षत मेरा युद्धमें मर जाना उत्तम है, परन्तु इसके बिना सुरलोकमें मेरा जीना शक्य नहीं है। (१८) जब हनुमान मनमें ऐसा सोच रहा था तब मदनसे प्रेरित वह लंकासुंदरी सुन्दर रूपवाले हनुमानको देखकर सहसा बेचैनी महसूस करने लगी। (१६) वह सोचने लगी कि यदि मैं यहाँ इसके साथ भोग नहीं भोगूंगी तो मेरा यह लोक सर्वथा निष्फल जायगा। (२०) तब विकसित कमलके समान मुखवाली लंकासुन्दरीने कहा कि, हे स्वामी ! देवोंसे भी मैं जीती नहीं गई हूँ, किन्तु तुमने मुझे जीत लिया है। (२१) इसके पश्चात् पासमें आई हुई उसको हनुमानने अपने अंकमें बिठाया। जिस तरह कामदेव रतिका आलिंगन करता है उसी तरह उसने उस बालाको गाढ़ आलिंगन दिया । (२२) अत्यन्त प्रीतिसे युक्त वे दोनों वार्तालाप कर रहे थे कि दिवसके अवसानके समय सूर्य अस्त हो गया। (२३) तब विद्याके बलसे आकाशमें बादल आदिको स्तम्भित करके सुरपुरीके सदृश मनोरम और विशाल नगर निर्मित किया गया । (२४) वहाँ रात बिताकर प्रभातके समय सेनाके साथ जाने के लिये तैयार हनुमानने उस लंकासुन्दरीसे कहा कि, १-२. लहासुन्दरि-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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