Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 397
________________ पउमचरियं ताव चिय कनाओ, ताओ उवसम्गसिद्धविज्जाओ। मेरु पदक्खिणेउ. साहुसयाय पुण गयाओ ॥ ८॥ नमिऊण मुणिवरिन्दे, शाणत्थे मारुई पसंसन्ति । कन्नाउ साहु सुपुरिस !, तुज्झ दढा निणवरे भत्ती ॥ ९॥ घोरुवसम्गो एसो, साहूण निवारिओ तुमे सिग्छ । डज्झन्तीणं रणे, अम्हाण वि जीवियं दिन्नं ॥१०॥ अह भणइ पवणपुत्तो,तुब्मे किं एत्थ अच्छह वणम्मि? | साहेह मज्झ एत्तो, कम्मि पुरे! कस्स दुहियाओ?॥११॥ एक्का भणइऽह अम्हे, दहिमुहनयराहिवस्स दुहियाओ । गन्धवस्स महानस ! कन्नाओ तिण्णि वि जणीओ ॥१२॥ अयं तु चन्दलेहा, बिइया विज्जुप्पम त्ति नामेणं । इयरा तरङ्गमाला, अम्हे गोत्तस्स इट्ठाओ ॥ १३ ॥ नावइया इह भवणे, हवन्ति केएत्थ खेयरकुमारा । अम्हं कएण सुपुरिस !, जाया अइदुक्खिया सबे ॥ १४ ॥ अङ्गारओ ति नाम, अहियं अम्हेहि मग्गमाणो सो । अलहन्तो च्चिय जाओ, निययविरोहुजयमईओ ॥ १५॥ अट्टानिमित्तधरो, अम्हं पियरेण पुच्छिओ साहू । ठाणेसु केसु रमणा, दुहियाणं मज्झ होहिन्ति ! ॥ १६ ॥ सो भणइ साहसगई, जो हणिही रणमुहे पुरिससीहो । सो होही भत्तारो, एयाणं तुज्झ दुहियाणं ॥ १७ ॥ तत्तो पमूह अम्हं, ताओ चिन्तेइ को इहं भुवणे । मारेइ साहसगई, पुरिसो बज्जाउहसमो वि! ॥ १८ ॥ मम्गन्तीहिं जओ सो, न य लद्धो साहसस्स हन्तारो । तत्तो साहिंसु इह, रणे मणगामिणी विज्जा ॥ १९ ॥ अह तेण विरुद्धणं, अहं अङ्गारएण पावेणं । मुक्कं फुलिङ्गवरिसं, जेण वणं चेव पज्जलियं ॥ २० ॥ जा छम्मासेण पहू !, सिज्झइ मणगामिणी महाविजा । सा चेव लहु सिद्धा, अम्हें उवसम्गसहणेणं ॥ २१ ॥ साह महापरिस। तुमे, वेयावच्चे कए मुणिवराणं । अम्हे वि मोडयाओ. इमाउ जलणोवसग्गाओ ॥ २२ ॥ कहियं च निरवसेस, कजं पउमागमाइयं सर्व । साहसगइस्स निहणं, नियय लकापुरीगमणं ॥ २३ ॥ प्रदक्षिणा करके उन साधुओंके पास गई।(5) ध्यानस्थ मुनियोंको वन्दन करके उन कन्याओंने हनुमानकी प्रशंसा की कि, हे साधु ! हे सुपुरुष! तुम्हारी जिनवरमें दृढ़ भक्ति है। (इ) तुमने शीघ्र ही साधुओंका यह घोर उपसर्ग दूर किया है और अरण्यमें जलती हुई हमें भी जीवन दिया है। (१०) तब हनुमानने पूछा कि तुम इस वनमें क्यों ठहरी हो ? मुझे यह कहो कि किस नगरमें तुम ठहरी हो और किसकी कन्याएँ हो ? (११) इस पर उनमेंसे एकने कहा कि हे महायश! हम तीनों ही कन्याएँ दधिमुख नगरके राजा गन्धर्व की लड़कियाँ हैं । (१२) मैं चन्द्रलेखा हूँ, दसरी विद्यत्प्रभा नामकी है और तीसरी तरंगमाला है। हम कुलकी प्रिय हैं। (१३) हे सुपुरुष! इस लोकमें जितने भी विद्याधरकुमार थे वे सब हमारे कारण अत्यधिक दुःखित हुए। (१४) अंगारक नामका कुमार हमारी बहुत माँग कर रहा था, किन्तु न मिलने पर वह सर्वदाके लिए विरोधी बुद्धिवाला हो गया। (१५) हमारे पिताने अष्टांगनिमित्त विद्याके धारक एक साधुसे पूछा कि मेरी पुत्रियोंके पति किन स्थानोंमें होंगे? (१६) उसने कहा कि युद्धमें जो पुरुषसिंह साहसगतिको मारेगा वही तुम्हारी इन पुत्रियोंका पति होगा। (१७) तबसे लेकर हमारे पिता सोचते रहते हैं कि इस लोकमें बजायुध इन्द्र के जैसा कौन पुरुष साहसगतिको मारेगा ? (१८) खोज करती हुई हमने जब साहसगतिके मारनेवालेको न पाया तब इस वनमें हम मनोगामिनी विद्याकी साधना करने लगी। (१६) तब हमारे विरोधी उस पापी अंगारकने अग्निकी वर्षा की, जिससे जंगल जल उठा । (२०) हे प्रभो! जो मनोगामिनी महाविद्या छः मासमें सिद्ध होती है वही उपसर्गको सहन करनेसे हमें शीघ्र ही प्राप्त हुई है। (२१) हे महापुरुष! तुम्हें धन्यवाद है। मुनिवरोंकी सेवा करनेसे हम भी इस अग्निके उपसर्गसे मुक्त हो सकी । (२२) इस पर उसने रामका आगमन आदि, साहसगतिका निधन तथा अपना लंकागमनका सारा वृत्तान्त कहा। १. मारई-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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