Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 395
________________ ३४२ ... पउमचरियं [५०.२० तं दटूण सुमरिय, वयणं जणणीए नं समक्खायं । विज्जाहरसामन्तो, वसइ महं अज्जओ एत्थं ॥ २ ॥ . जेण मए उयरत्ये, जणणी मे धाडिया महारण्णे। सीहभउबिग्गमणा, पलियरगुहाएँ मज्झम्मि ॥३॥ आसासिया य मुणिणा, तत्थ पसूया वणम्मि एगागी । जाओ दइएण सम, समागमो कह वि पुण्णेहिं ॥४॥ तस्सऽवराहस्स अहं, पडिदाणं देमि अज्ज निक्खुतं । विज्जाहरगवमिणं, फेडेमि महिन्दरायस्स ॥ ५॥ एत्थन्तरम्मि पहयं, तूरं पडुपडहसद्दगम्भीरं । सुहडा य समाढत्ता, ओत्थरिउ त महानयर ॥ ६ ॥ सोऊण परबलं सो समागय निययसाहणसमग्गो । अह निग्गओ महिन्दो, नयराओ रोसपज्जलिओ ॥ ७ ॥ आवडिओ संगामो, हयगयपउराण उभयसेन्नाणं । असि-कणय-चक्क-तोमर-संघटुट्ठन्तसद्दालं॥८॥ भगं महिन्दसेन्नं, दट्टण महिन्दरायपुत्तो सो । दढचावगहियहत्थो, हणुवन्तं पाविओ सिग्धं ॥ ९ ॥ ताव चिय मारुइणा, तस्स धणू सुनिसिएसु बाणेसु । छिन्नं रहो य भम्गो, पसन्नकित्ती तओ गहिओ ॥ १०॥ दट्टण सुर्य गहिय, महिन्दराया समुट्ठिओ रुटो । हणुएण समं जुझं, आवडिओ पहरणविहत्थो ॥ ११ ॥ सर-झसर-सत्ति तोमर, महिन्दराया वि मुञ्चई रुट्ठो । हणुओ वि ते महप्पा, आउहनिवहे निवारेइ ॥ १२ ॥ मायासहस्सकलियं, काऊण य दारुणं महाजुझं । गरुडेण विसहरो इव, तेण महिन्दो रणे गहिओ ॥ १३ ॥ गहियस्स पवणपुत्तो, पडिओ मायामहस्स चलणेसु । भणइ य इह दुचरिय, तं मज्झ गुरू खमेज्जासु ॥ १४ ॥ नाऊण य पडिभणिओ, वच्छय ! साहु त्ति साहु बलविरियं । जाएण तुमे पुत्तय!, निययकुलं भूसियं सयलं ॥ १५॥ तं खामिऊण हणुओ, निययं मायामहं परिकहेइ । सर्व पउमागमणं, अप्पणयं गमणकजं च ॥ १६ ॥ अहयं लहानयरी, अजय ! वच्चामि तुरियकज्जेणं । तं पुण किक्किन्धिपुर, गच्छसु रामस्स पासम्मि ॥ १७॥ . महेन्द्रनगरी देखी। (१) उसे देखकर माताने जो वचन कहा था वह याद आया कि मेरा दादा यहाँ रहता है जिसने, जब मैं गर्भमें था तब, मेरी माताको महारण्यमें निष्कासित किया था। सिंहके भयसे उद्विग्न मनवाली उसे पर्यकगुफामें मुनिने आश्वासन दिया था। वनमें एकाकी उसने प्रसव किया था और किसी तरह पुण्यके बलसे पतिके साथ समागम हुआ था। (२-४) आज मैं उस अपराधका बदला लूँगा। विद्याधर महेन्द्रराजाका गर्व में चूर करूँगा । (५) तब भेरिके पटु और गम्भीर शब्दसे युक्त बाजे बजाये गये। सुभट उस महानगरमें उतरने लगे। (६) शत्रुसैन्यको आया जान गुस्सेसे लाल-पिला होता हुआ वह महेन्द्र राजा अपनी सेनाके साथ निकल पड़ा। (७) हाथी एवं घोड़ोंसे युक्त दोनों सेनाओंमें तलवार, कनक, चक्र एवं तोमरके टकरानेसे उठनेवाले शब्दोंसे व्याप्त ऐसा संग्राम होने लगा। (5) महेन्द्रकी सेनाका विनाश देखकर वह महेन्द्रराजका पुत्र प्रसन्नकीर्ति हाथमें मजबूत धनुष लेकर शीघ्र ही हनुमानके पास आया। (३) हनुमानने तत्काल ही तीक्ष्ण बाणोंसे उसका धनुष काट डाला और रथ तोड़ डाला। उसके बाद प्रसन्नकीर्तिको पकड़ लिया। (१०) पुत्र पकड़ा गया है यह देखकर शत्रोंमें कुशल महेन्द्रराजा रुष्ट हो उठ खड़ा हुआ और हनुमानके साथ युद्ध करने लगा। (११) रुष्ट महेन्द्र राजा बाण, झसर, (शस्त्र-विशेष), शक्ति और तोमर फेंकने लगा। महात्मा हनुमान भी उन आयुधोंका निवारण करता था। (१२) हजारों मायासे युक्त दारुण महायुद्ध करके उस हनुमानने, जिस तरह गरुड़ सर्पको पकड़ता है उस तरह, महेन्द्रको संग्राममें पकड़ लिया। (१३) पकड़े गये मातामहके चरणों में हनुमान गिरकर प्रणाम किया और कहा कि मेरा यह बड़ा भारी दुश्चरित श्राप क्षमा करें। (१४) पहचान करके जवाबमें उसने कहा कि, हे वत्स ! तुम्हारे बल एवं वीर्यको धन्यवाद है। हे पुत्र! तुम्हारे उत्पन्न होनेसे तुम्हारा अपना सारा कुल अलंकृत हुआ है। (१५) क्षमायाचना करके हनुमानने अपने उस मातामहसे रामका आगमन तथा अपना गमनकार्य आदि सब कुछ कहा कि, दादाजी ! कार्यको जल्दी होनेसे में लकानगरी की ओर जाता हूँ, किन्तु आप किष्किन्धिपुरीमें रामके पास जावें। (१६-१७) ऐसा कहकर पवनपुत्र हनुमान आकाशतलमें १. रायतणओ सो-प्रत्यः । २. नयर प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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