Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 378
________________ ४६. मायापायारविउठवणपठबं एत्थन्तरे विलग्गो, भुवणालंकारमत्तमायो । सीया वि य आरुहिया, पुप्फविमाणे दहमुहेणं ॥ गय-तुरय-बोह-रहवर-संघट्टुट्ठन्तमङ्गलरवेणं । अहिणन्दिओ य वच्चर, तणमिव गणिओ विदेहाए ॥ पत्तो समत्तकुसुमं उज्जाणं विविहपायवसमिद्धं । पुप्फगिरिस्स मणहरं, ठियं च उवरिं समन्तेणं ॥ उज्जाणस्स परसा, सत्त तुमं ताव सुणसु मगहवई । पढमं पइण्णनामं, आणन्दं तह य सुहसेवं ॥ सामुच्चयं चउत्थं पञ्चमयं चारणं ति नामेणं । पियदंसणं च छईं, पउमुज्जाणं च सत्तमयं ॥ ६८ ॥ पढमं पइण्णगं ति य, धरणियले तह परं जणाणन्दं । नाणाविहतरुछन्नं, तत्थ जणो नायरो रमइ ॥ ६९ ॥ तयम्मि उ सुहसेवे, समुच्चए तह चउत्थए रम्मे । कीलइ विलासिणिनणो, सुयन्धकुसुमोहबलिकम्मो ॥ ७० ॥ चारणमणाभिरामे, उज्जाणे चारणा समणसीहा । सज्झाय - झाणनिरया, वसन्ति निचं दढधिईया ॥ ७१ ॥ तम्बोलवल्लिपउरं, केहयधूलीसुधू सरामोयं । पियदंसणं च छट्टु, उज्जाणं मणहरालोयं ॥ ७२ ॥ षउमवरुज्जाणं तं, सत्तमयं विविहरइयसोवाणं । पुष्फगिरिपवरसिहरे, अहिट्ठियं पण्डगवणं व ॥ ७३ ॥ नारङ्ग-फणस-चम्पग-असोग-पुन्नाग - तिलयमाईहिं । रेहन्ति उबवणाई, कोइलमहुरानिणायाई ॥ ७४ ॥ वावी दीहियासु य, जणवयण्हाणावगाहणजलासु । कमलुप्पलछन्नासुं, ताई अहियं विरायन्ति ॥ ७५ ॥ तत्थ य पउमुज्जाणे, नामेणासोगमालिणी वावी । कीलणहरेसु रम्मा, विमलजला काणणसणाहा ॥ ७६ ॥ तत्थासोगमहातरुसंछन्ने ठाविया जणयधूया । पण्डगवणे व नज्जइ, अवइण्णा सुरबहू चेव ॥ ७७ ॥ रावणपवेसियाहिं, जुवईहि अणेयचाडुयारोहिं । निययं पि पसाइज्जइ, वीणागन्धबनदेहिं ॥ ७८ ॥ न करेइ मज्जणविहिं, न य भुलइ नेय देइ उल्लावं । एगग्गमणा सीया, अच्छछ रामं विचिन्तन्ती ॥ ७९ ॥ I ४६.७९] ६४ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ -तब भुवनालंकार नामक एक मदोन्मत्त हाथी पर रावण सवार हुआ। पुष्पक विमानमें सीताको भी उसने चढ़ाया। (६४) हाथी, घोड़े, योद्धा तथा उत्तम रथोंके समूहसे उठनेवाली मंगलध्वनि से अभिनन्दित रावण जा रहा था, किन्तु वेदैहीने उसे तृणवत् माना । (६५) विविध वृक्षोंसे समृद्ध तथा पुष्पगिरिके ऊपर चारों और स्थित ऐसे मनोहर समन्वकुसुम नामक उद्यानमें वह आ पहुँचा । (६६) Jain Education International ३२५ हे मगधपति ! उस उद्यान के सात प्रदेशों के बारेमें तुम सुनो। पहले प्रदेशका नाम प्रकीर्ण, दूसरेका आनन्द, तीसरेका सुखसेव्य, चौथेका समुच्चय, पाँचवेंका चारण, छठेका प्रियदर्शन और सातवेंका नाम पद्मोद्यान था। (६७८) धरातल पर पहला प्रकीर्णक था, उससे आगे जनानन्द था । नानाविध वृक्षोंसे आच्छन्न उनमें नगरजन क्रीड़ा करते थे । (६९). तीसरे सुखसेव्य तथा समुच्चय नामक रम्य उद्यान- प्रदेशों में सुगन्धित पुष्पोंके समूहसे बलिकर्म करनेवालों खियाँ क्रीड़ा करती थीं। (७०) मनोरम चारण उद्यानमें श्रमणोंमें सिंह सरीखे, अतिशय धैर्यवाले तथा स्वाध्याय एवं ध्यानमें निरस चरणश्रमण सदा बसते थे । (७१) ताम्बूलकी लताओंसे व्याप्त, केतकीके परागसे धूसरित एवं आमोदपूर्ण प्रियदर्शन नामका छठा उद्यान देखने में मनको हरनेवाला था । (७२) विविध सोपान जिसमें बने हुए हैं ऐसा सातवाँ पद्मोद्यान पण्डकबनकी भाँति पुष्पगिरिके उत्तम शिखर पर स्थित था । (७३) वे उद्यान नारंगी, कटहर, चम्पा, अशोक, पुन्नाग एवं तिलक भादि वृक्षोंसे तथा कोयल आदिके मधुर निनादसे शोभित थे । (७४) लोगोंके स्नानावगाहनके योग्य जलसे भरी हुई तथा कमलोंसे व्याप्त बावड़ियों और जलाशयोंके कारण वे अधिक शोभित हो रहे थे । (७५) वहाँ पद्मोद्यानमें क्रीडागृहोंसे रम्य, निर्मल जलवाली तथा वृक्षोंसे युक्त अशोकमालिनी नामकी बावड़ी थी। (७६) वहाँ अशोकवनसे माच्छादित स्थानमें रखी गई सीता पण्डकवनसे अवतीर्ण देवकन्या-सी प्रतीत होती थी। (७७) रावणके द्वारा भेजी गई और अनेक तरहसे खुशामद करनेवालीं युवतियाँ वीणा, संगीत एवं नृत्यसे उसे सतत प्रसन्न करती थीं। (७) किन्तु सीता न वो ज्ञान करती थी, न खाती थी और न बातचीत ही करती थी । एकाग्रमना सीता रामका विचार करती हुई बैठी रहती थी। (७९). For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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