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४८.४५]
४८. कोडिसिलुद्धरणपन्वं तं पणमिऊण साह, गेहं संपत्थिओ निययकण्ठे । लाएइ असिवरं सो, पुच्छह य कहेहि जम्मं मे ॥ ३०॥ सर्व पि तेण सिट्ट, नरवइणा तस्स कम्बलाईयं । जाओ समागमो पुण, माया-वित्तेहि से समय ॥ ३१ ॥ जाओ य महाणन्दो, परमविभूईएँ कुञ्चवरनयरे । सेणिय ! कमागओ तुह, संबन्धो सो समक्खाओ॥ ३२॥ एत्तो सो कइवसभो, पुरओ काऊण लक्खणं तुरिओ । संपत्तो पउमाभ, पणमइ विहियञ्जली सिरसा ॥ ३३ ॥ सम्गीवनरवईणं. आहूया तत्थ वाणरा सबे । भणिया पच्चुवयारं, करेह सिग्घं नरवइस्स ॥ ३४ ॥ सीया गवेसह लहूं, पायाले जल-थले तहाऽऽगासे । लवणे धायइसण्डे, अद्धतईएसु दीवेसु ॥ ३५ ॥ 'आणा पडिच्छिऊणं, वाणरसुहडा तओ समन्तेणं । उप्पइया गयणयले, सहसा वच्चन्ति मणवेगा ॥ ३६॥ पउमाणत्तो य गओ, लेहं घेत्तण वाणरजुवाणो । भामण्डलस्स सिग्धं, अप्पेइ सिरञ्जलिं काउं ॥ ३७ ॥ तं वाइऊण लेह, असेसवित्तन्तमुणियपरमत्थो । बहिणीसोगापुण्णो, रामस्स हिओजओ जाओ ॥ ३८ ॥ सबमेव वाणरवई, खेयरपरिवेढिओ विमाणत्यो । 'सीया गवेसयन्तो, कम्बुद्दीवं समणुपत्तो ॥ ३९ ॥ अवइण्णो च्चिय सहसा, दीवे पेच्छह तहिं रयणकेसी । गाढभउबिम्गमणो, पुच्छह किं दक्खिओ सि तुम:॥ ४० ॥ भणइ तओ रयणजडी, सीयाहरणुज्जयाउलमणेणं । अहयं तु छिन्नविज्जो, रक्खसवइणा कओ पडिओ ॥ ११ ॥ उवलभिऊणमसेसं. वित्तन्तं कइवरो रयणकेसी । निययविमाणारूढं, पउमसयासं तओ नेइ ॥ ४२ ॥ अवइण्णो स्यणजडी, रामं नमिऊण तत्थ उवविठ्ठो । साहेइ अपरिसेसं, सीयाहरणं जहावत्तं ॥ १३ ॥ लहाहिवेण सामिय !. हरिया तुह गेहिणी अइबलेणं । जुज्झन्तो तीऍ कए, तेण कओ छिन्नविज्जो हं ।। ४४ ॥ तं सुणिऊण रहुवई, हरिसवसुन्भिन्नजणियरोमञ्चो । सयलं च अङ्गछिन्न, देह तओ रयणकेसिस्स ॥ ४५ ॥
उस साधुको प्रणाम करके उसने घरकी ओर प्रयाण किया। अपने गले पर तलवार रखकर उसने पूछा कि मेरे जन्मके बारेमें कहो। (३०) उस राजाने उसे कम्बल आदि सबके बारेमें कहा। तब उसका पुनः माता-पिताके साथ समागम हुआ। (३१) क्रौंचनगरमें बड़े आडम्बरके साथ उत्सव मनाया गया। हेभेणिक! मैने परंपरासे आया हुआ वह वृत्तान्त तुम्हें सुनाया। (३२)
तब वह कपिवृषम सुग्रीव लक्ष्मणको आगे करके जल्दी रामके पास पहुँचा और हाथ जोड़कर सिरसे प्रणाम किया। (३३) सुग्रीव राजाने वहाँ सब वानरोंको बुलाया और कहा कि शीघ्र ही राजाका प्रत्युपकार करो। (३४) पातालमें, जलमें, स्थलमें, तथा आकाशमें, लवणसागरमें, धातकीखण्डमें तथा ढाई द्वीपमें सीताकी शीघ्र ही खोज करो। (३५) आज्ञा स्वीकार करके वानरसुभट चारों ओर आकाशमें उड़े और मनके समान वेगवाले वे एकदम चल दिये । (३६) रामके द्वारा प्रादिष्ट एक वानरयुवा पत्र लेकर शीघ्र ही भामण्डलके पास गया और प्रणाम करके वह पत्र दिया । (३७) उस पत्रको पढ़कर सारा वृत्तान्त और उसका परमार्थ जिसने जान लिया है ऐसा वह बहनके शोकसे परिपूर्ण भामण्डल रामके हितके लिये उद्यत हुआ। (३८) खेचरोंसे घिरा हुआ स्वयं वानरपति सुग्रीव विमानमें बैठकर सीताको ढूँढता हुमा कम्बुद्वीपमें आ पहुँचा । (३९) सहसा वह उस द्वीपमें उतरा। वहाँ उसने भयसे अत्यन्त उद्विग्न मनवाळे रमकेशीको देखा। उसने पूछा कि तुम क्यों दुःखित हो? (४०) इस पर रत्नजटीने कहा कि सीवाके अपहरणमें प्रयत्नशील तथा व्याकुल मनवाळे राक्षसपतिने मुझे विद्याहीन बना दिया है। इससे मैं नीचे गिर पड़ा हूँ। (४१) समग्र वृत्तान्त जानकर कपिवर सुग्रीव रमकेशीको अपने विमानमें बिठा रामके पास ले आया। (४२) रजनकेशी विमानमेंसे नीचे उतरा। रामको प्रणाम करके वहीं बैठा और सीता हरणके बारेमें जैसा हुआ था वैसा सब कुछ कह सुनाया कि हे स्वामी! अतिबलवान् रावणने बापकी पत्नीका अपहरण किया है। आपकी उस पत्नीके लिए युद्ध करता हुआ मैं उस रावणसे विद्याहीन बना दिया गया हूँ। (४३-४) यह सुनकर रोमांचित रघुपतिने हर्षमें आकर रनकेशीको अंग पर धारण किये हुए सभी पदार्थ दे दिये । (४५)
१. आण-प्रत्य.। । २. सीयं-प्रत्य० ।
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