Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 384
________________ ४८. कोडिसिलुद्धरणपव्वं अह तस्स घिइनिमित्तं, कुणन्ति कन्नाउ विविहविणिओगे । नच्चन्ति य गायन्ति य, लीलासु मणोहर कुहरं ॥ १ ॥ विभवो वि तस्स सयलो, समाणिओ पहाण - भोयणाईओ । न य कुणइ निबुइसुहं, कन्ताहिययस्स रामस्स ॥ २ ॥ नय सुणइ गीयसद्दं, न य पेच्छइ मणहरं पि सो रूवं । सीयाएगग्गमणो, झायइ सिद्धिं नहा जोगी ॥ ३ ॥ न कुणइ कहं पि अन्नं, मोत्तुं सोयासमागमुलावं । पासट्ठिए वि सद्दइ, एहेहि लहु नणयधूए । ॥ ४ ॥ देवी व माणुसी वा नागवहू जक्खिणी व महिला हं । इह सयलजीवलोए, सीयासरिसी न पेच्छामि ॥ ५ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, पलवन्तो बहुविहाणि अमुणिन्तो । भणइ कणि पउमो, सो वि चिरावेइ सुग्गीवो ॥ ६ ॥ राहववयणेण गओ, सोमित्ती पविसिऊण सुग्गीवं । भणइ भवणोयरत्थं किं पम्हुट्टं तुमं सबं ॥ ७ ॥ महिलासोगसमुद्दे, पडिए परमेसरे तुमं एत्थं । कह रमसि विसयसोक्खं, अदीहपेही महापावो ! ॥ ८ ॥ अकयग्ध ! खेयराधम !, पावमई ! तत्थ नेमि सिग्धं ते । पउमेण जत्थ नीओ, तुह सरिसो दुट्ठचारित्तो ॥ ९ ॥ एव परितज्जयन्तं, सोमित्ती' वाणराहिवो नमिउं । भणइ य पम्हुठ्ठे से, एक्कवराहं खमसु मझं ॥ १० ॥ संभारिउं पइणं, तस्स सुमित्ती कहेइ संबन्धं । जह जोगी उवयारं, कुणइ चिय जक्खदत्तस्स ॥ परिपुच्छइ मगहवई, गणाहि नक्खदत्तवित्तन्तं । भयवं ! फुडवियडत्थं, कहेहि इच्छामि नाउं जे ॥ भणइ तओ गणणाहो, सेणिय ! निसुणेहि जोगिणा सिट्ठे । जाओ जणणीऍ समं, समागमो जक्खदत्तस्स ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ ४८. कोटिशिलाका उद्धरण उन रामके धैर्य के लिए वे कन्याएँ विविध योजनाएँ करती थीं। वे नाचती थीं, गाती थीं और लीलाओंसे उस स्थानको मनोहर बनाती थीं । (१) उनके लिए स्नान भोजन आदि समग्र वैभव उपस्थित किया गया, किन्तु पत्नीमें लगे हुए मनवाले रामको वह आनन्द नहीं देता था । (२) वे न तो गीतध्वनि सुनते थे और न मनोहर रूप ही देखते थे। जिस प्रकार योगी एकाग्र मनसे सिद्धिका ध्यान करता है उसी प्रकार वे एकाग्र मनसे सीताका ध्यान करते थे । (३) सीतासमागमकी बातको छोड़कर दूसरा कोई भी उच्चारण वे नहीं करते थे । जब पासमें, दूसरे लोग बैठे हों तब भी 'सीते ! जल्दी आ, जल्दी आ' ऐसा कहते थे । (४) 'इस सारे जीव लोकमें मैं सीता जैसी कोई देवी, मानुषी, नागकन्या अथवा यक्षिणी बी नहीं देखता' - अज्ञान भावमें ये तथा दूसरे बहुत प्रकारके प्रलाप करते हुए रामने छोटे भाई से कहा कि वह सुप्रीव भी देर कर रहा है । (५-६) रामके कहनेसे लक्ष्मण गया और महलमें प्रवेश करके सुग्रीवसे कहा कि महलके भीतर रद्द करके क्या तुम सब कुछ भूल गये ? (७) जब स्वामी पत्नी विषयक शोकसागर में पड़े हों तब अदीर्घदर्शी और महापापी तुम यहाँ कैसे विषयसुख मना रहे हो ? (5) हे अकृतज्ञ और दुष्ट बुद्धिवाले अधम खेचर! तुम्हें मैं वहीं भेज देता हूँ जहाँ रामने दुष्टचरित्रवाले तुम्हारे जैसेको अर्थात् बालिको भेजा है । (९) इस प्रकार धमकाने पर वानराधिप सुग्रीवने नमन करके लक्ष्मणसे कहा कि मैं भूल गया। मेरा एक अपराध क्षमा करो। (१०) प्रतिज्ञाका स्मरण कराके उसे लक्ष्मणने एक वृत्तान्त कहा कि किस तरह योगीने यक्षदत्तका उपचार किया । (११) मगधपति श्रेणिकने गणाधिप गौतमसे पूछा कि, हे भगवन् ! यज्ञदत्तका स्फुट और सुन्दर अर्थवाला वृत्तान्त आप कहें। मैं उसे सुनना चाहता हूँ । (१२) तब गणनाथ गौतमने कहा कि, हे श्रेणिक ! योगीके कथनानुसार माताके साथ यज्ञदत्तका जो समागम हुआ वह तुम सुनो । (१३) १. सोमित्ति— प्रत्य• । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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