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४६. मायापायारविऊवणपन्वं
३२३ बा नेच्छह परमहिला, अपसन्ना बइ विरूवगुणपुण्णा । सा वि य मए बलेणं, ने पत्थियबा सयाकालं ॥ ३२ ॥ एएण कारणेणं, बला न गिहामि परनिहत्था है। मा मे निवित्तिभङ्गो, होही पुबम्मि गहियाए ॥ ३३ ॥ अचलिय-अखण्डियाए, एस निवित्तीऍ नरयपडिओ वि । उत्तारिज्जामि अहं, घडो व कूवम्मि रज्जूए ॥ ३४ ॥ मयणसरभिन्नहियर्य, नइ जीवन्तं मए तुमं महसि । सुन्दरि ! आणेहि लहु, तं महिलाओसहिं गन्तुं ॥ ३५ ॥ एयावत्थसरीरं, कन्तं मन्दोयरी पलोएउं । जुवईहि संपरिखुडा, चलिया जत्थऽच्छए सीया ॥ ३६ ॥ उज्जाणं सुररमणं, संपत्ता तत्थ पायवसमीवे । मन्दोयरीऍ दिट्ठा, जणयसुया वणसिरी चेव ॥ ३७॥ आलविऊण निविट्ठा, जंपइ मन्दोयरी सुणसु भद्दे ! । किं नेच्छसि भत्तार, दहवयणं खेयराहिवई १॥ ३८ ॥ महिगोयरस्स अत्थे, किं अच्छसि दुक्खिया तुम बाले ! । अणुहवसु देहसोक्खं, लक्ष्ण दसाणणं कन्तं ॥ ३९ ॥ जे राम-लक्खणा वि हु, तुज्झ हिए निययमेव उज्जुत्ता । तेहिं पि किं व कीरइ, विजापरमेसरे रुहे? ॥ ४०॥ मन्दोयरीए एवं, नं भणिया जणयनन्दिणी वयणं । जाया गग्गरकण्ठा, अंसुजलापुण्णनयणजुया ॥ ४१ ॥ पडिभणइ तओ सीया, सईउ किं एरिसाणि वयणाणि । जंपन्ति सुमहिलाओ, उत्तमकुलनायपुवाओ? ॥ ४२ ॥ नइ वि हु इमं सरीरं, छिन्न भिन्न हयं च पुणरुतं । रामं मोत्तण पई, तह वि य अन्नं न इच्छामि ॥ ४३ ।। नइ वि अखण्डलसरिसं, परपुरिसं सणंकुमाररूवं पि। तं पि य नेच्छामि अहं, किं वा बहुएहि भणिएहिं? ॥१४॥ एत्थन्तरम्मि पत्तो, दह्वयणो मयणवेयणुम्हविओ। सीयाएँ समन्भासे, अवडिओ भणइ वयणाई ॥ ४५ ॥ सुन्दरि ! विन्नप्पं सुण, हीणो है केण वत्थुणा ताणं । जेण ममं भत्तार, नेच्छसि सुइरं पि भण्णन्ती: ॥ ४६ ॥
भणइ तओ जणयसुया, अवसर मा मे छिवेहि अङ्गाइं । विज्जाहराहम! तुमं, कह जंपसि एरिसं वयणं ॥ ४७ ॥ अप्रसन्न होकर नहीं चाहेगी तो बलशालो मैं उसकी सर्वदाके लिए इच्छा नहीं करूँगा। (३१-३२) इसी वजहसे मैं परस्त्रीको बलपूर्वक ग्रहण नहीं करता। पूर्व में गृहीत मेरी निवृत्ति (त्याग) का भंग न हो। (३३) जिस तरह कुएँ में पड़ा हुआ. घड़ा रस्सीसे बाहर निकाला जाता है उसी तरह अचलित और अखण्डित मेरी इसी निवृत्तिसे नरकमें पड़ने पर भी मैं पार हो सकूँगा । (३४) हे सुन्दरी! मदनके शरसे भिन्न हृदयवाले मुझको यदि तुम जीवित देखना चाहती हो तो जा करके वह महिलारूपी औषधि जल्दी लाओ। (३५) ऐसी अवस्थासे युक्त शरीरवाले पतिको देखकर युवतियोंसे घिरी हुई मन्दोदरी जहाँ सीता ठहरी हुई थी वहाँ गई । (३६)
उस सुररमण नामक उद्यानमें पहुँचकर मन्दोदरीने वृक्षके पास वनकी लक्ष्मी जैसी सीताको देखा। (३७) बातचीत करके बैठने पर मन्दोदरीने कहा कि, हे भद्रे ! सुनो। तुम खेचराधिपति रावणको पति रूपसे क्यों नहीं चाहती ? (३८) हे बाले ! जमीन पर चलनेवालेके लिए तुम दुःखी क्यों होती हो? रावणको पतिके रूपमें प्राप्त करके तुम शरीर-सुखका अनुभव करो। (३९) जिन राम और लक्ष्मणने तुम्हारे हृदयमें स्थान प्राप्त किया है वे भी विद्याधरेश रावणके रुष्ट होने पर क्या करेंगे ? (४०) मन्दोदरीके ऐसे वचन कहने पर सीताका गला भर आया तथा उसकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये। (४१) तब सीताने कहा कि, उत्तम कुलमें उत्पन्न सती स्त्री क्या ऐसे वचन कह सकती है ? (४२) यदि इस
शरीरको छिन्न-भिन्न और बारबार काटा जाय तो भी रामको छोड़कर अन्य किसीको पतिरूपसे मैं नहीं चाहूँगी। (४३) . बहुत कहनेसे क्या फायदा ? परपुरुष यदि इन्द्र जैसा हो अथवा सनत्कुमारके समान सुरूप हो, तो भी मैं उसे नहीं चाहूँगी। (४४)
उस समय कामकी वेदनासे विह्वल रावण भी वहाँ पहुँचा और सीताके पास बैठकर ऐसे वचन कहने लगाहे सुन्दरी! तुम मेरी बिनती सुनो । उनसे मैं किस बातमें हीन हूँ जिससे चिरकालसे कहने पर भी मुझे पति रूपसे नहीं चाहती (४५-६) तब सीताने कहा कि तुम दूर हटो, मेरे अंगोंको मत छुओ। हे अधम विद्याधर ! तुम ऐसे वचन क्यों कहते हो ? (४७) तब रावणने कहा कि हे कृशोदरी ! मेरी युवतियोंकी तुम मुख्य महादेवी बनो और इच्छानुसार
१. खेयराहिवई-प्रत्य० । २. पई-प्रत्य० । ३. मए भत्तारं-प्रत्य० ।
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