Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 370
________________ ३१७ ४५.१] ४५. सीयाविप्पओगदाहपव्वं पुणरवि सरिऊण पियं, मुच्छा गन्तूण तत्थ आसत्थो । परिभमइ गवेसन्तो, सीयासीयाकउल्लावो ॥ ५६ ॥ भो भो मत्तमहागय !, एत्थारणे तुमे भमन्तेणं । महिला सोमसहावा, जइ दिट्ठा किं न साहेहि ? ॥ ५७॥ तरुवर तुमं पि वच्चसि, दूरुनयवियडपत्तलच्छाय! । एत्थं अपुबविलया, कह ते नो लक्खिया रणे ॥ ५८॥ सोऊण चक्केवाई, वाहरमाणी सरस्स मज्झत्था । महिलासङ्काभिमुहो, पुणो वि जाओ चिय निरासो ॥ ५९ ॥ रोसपसरन्तहियओ, वजावत्तं धणुं समारुहिउं । अप्फालेइ महप्पा, भयजणणं सबसत्ताणं ॥ ६० ॥ मोत्तण सीहनाय, पुणो विसायं खणेण संपत्तो । सोयइ मए वराई, जणयसुया हारिया रणे ।। ६१ ॥ इह मणुयसायरवरे, महिलारयणुत्तमं महं नटुं। न लभामि गवेसन्तो, धणियं पि सुदीहकालेणं ॥ ६२ ॥ वग्घेण व सीहेण व, खइया किं? मारिया व हत्थीण ? । बहुजलकल्लोलाए, अवहरिया गिरिनदीए ब? ॥ ६३ ॥ दिट्ठा दिट्ठा सि मए, एहेहि इओ इओ कउल्लावो । धावइ तओ तओ च्चिय, पडिसद्दयमोहिओ रामो ॥ ६४ ॥ अहवा दुट्टेण इहं, केण व हरिया महं हिययइट्ठा ? । घणगिरि-तरुसंछन्नं, कत्तो रणं गवेसामि ? ॥ ६५॥ एव परिहिण्डिऊणं, तं रणं राहवो पडिनियत्तो । जाओ निरासहियओ, निययावासे तओ सुयइ ॥ ६६ ॥ एवंविहा वि पुरिसा सुकयस्स छेदे, पावन्ति दुक्खमउलं इह जीवलोए । तम्हा जिणुत्तममएण विसुद्धभावा, धम्मं करेह विमलं च निरन्तरायं ॥ ६७ ॥ ॥ इय पउमचरिए सीयाहरणे रामविप्पलावविहाणं नाम चउत्तालीसं पव्वं समत्तं ॥ महिलारत्न मैने हो, अथवा हाथाने उसे मालया है। इधर आओ, ४५. सीयाविप्पओगदाहपव्वं ।। एत्थन्तरम्मि पत्तो, पुवविरुद्धो विराहिओ सहसा । सन्नद्धबद्धकवओ, बलेण सहिओ महन्तेणं ॥१॥ ऐसा चिल्लाकर उसे ढूँढ़ते हुए वे घूमने लगे। (५६) हे मत्त महागज! इस अरण्यमें घूमते हुए तुमने सौम्य स्वभाववाली महिला यदि देखी हो तो क्यों नहीं कहते ? (५७) हे तरुवर ! तुम भी बहुत ऊँचे और सघन पत्रोंकी छायावाले हो । क्या तुमने इस जंगलमें अपूर्व नारी नहीं देखी ? (५८) सरोवरके बीचमें रही हुई चक्रवाकीको बोलते सुन महिलाकी आशंकासे राम उस ओर अभिमुख हुए, किन्तु बादमें निराश हो गये । (५६) रोषसे व्याप्त हृदयवाले महामा रामने सब सत्त्वोंको भयभीत करनेवाले वज्रावर्त धनुषको चढ़ाकर उसका आस्फालन किया। (६०) सिंहनाद करके पुनः क्षणभरमें वे दुःखी हो गये। वे शोक करने लगे कि दीन जनकसुताको मैं वनमें हार गया। (६१) इस मानवसागरमें उत्तम महिलारत्न मैने खो दिया। अतिदीर्घ कालसे बहुत खोजने पर भी वह मुझे नहीं मिली। (६२) क्या बाघ या सिंहने उसे खा लिया है, अथवा हाथीने उसे मार डाला है, अथवा अधिक जलतरंगोंवाली गिरिनदीने तो उसे छोन नहीं लिया ? (६३) 'मैंने तुम्हें देख लिया है, देख लिया है। इधर आओ, इधर आओ' इस प्रकार प्रलाप करते हुए और प्रतिध्वनिसे मोहित राम जहाँ तहाँ दौड़ते थे। (६४) अथवा मेरी हृदयप्रियाका किसी दुष्टने अपहरण किया है, अतः सघन पर्वतों और वृक्षोंसे आच्छन्न अरण्यमें उसे कहाँ खोनँ ? (६५) इस प्रकार उस अरण्यमें परिभ्रमण करके राघव वापस लौटे और मनमें निराश होकर अपने आवासमें सो गये । (६६) ऐसे पुरुष भी पुण्यका नाश होनेपर इस जीवलोकमें अतुलनीय दुःख पाते हैं। अतएव जिनेश्वरके उत्तम मतसे विशुद्ध भाववाले होकर विमल एवं अन्तरायरहित धर्म का तुम पालन करो। (६७) ॥ पद्मचरितमें सीताहरणमें रामका विप्रलाप नामका चवालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । ४५. सीता-विप्रयोगका दाह । इधर पूर्वका शत्रु विराधित कवच बाँधकर तैयार हो बड़ी भारी सेनाके साथ सहसा वहाँ आ पहुँचा। (१) १. मुच्छं-प्रत्य । २. चक्कावाई वाहरमाणिं सरप्स मज्झत्थं-प्रत्य० । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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