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३१६ पउमचरियं
[४४.४१घाएण तेण रुट्ठो, दहवयणो पक्खिणं अमरिसेणं । करपहरचुणियङ्ग, पाडेइ लहु धरणिवढे ॥ ४१ ॥ नाव य मुच्छाविहलो, पक्खी न उवेइ तत्थ पडिबोहं । ताव य पुप्फविमाणे, 'सीया आणेइ दहवयणो ॥ ४२ ॥ सा तत्थ विमाणत्था, हीरन्तं जाणिऊण अप्पाणं । घणसोगवसीभूया, कुणइ पलावं जणयघूया ॥ ४३ ॥ चिन्तेइ रक्खसवई, कलुणपलावं इमा पकुबन्ती । बहुयं पि भण्णमाणी, रूसइ न पसज्जई मज्झं ॥ १४ ॥ अहवा साहुसयासे, पढम चियऽभिग्गहो मए गहिओ । अपसन्ना परमहिला, न य भोत्तबा सुरूवा वि ॥ ४५ ॥ तम्हा रक्खामि वयं, अयं संसारसागरुत्तारं । होही पसन्नहियया, इमा वि मह दीहकालेणं ॥ ४६ ॥ एव परिचिन्तिऊणं, वच्चइ लङ्कादिवो सपुरिहुत्तो । रामो पविसरइ रणं, घणसत्थपडन्तसंघायं ॥ १७ ॥ पासम्मि समल्लीणं, रामं दट्टण लक्खणो भणइ । एगागी जणयसुया, मोत्तण किमागओ एत्थं ॥ १८ ॥ सो भणइ सीहनायं, तुज्झ सुणेऊण आगओ इहई । पडिचोइओ य रामो, वच्चसु सीयासयासम्मि ॥ ४९॥ एए रिवू महाजस!, जिणामि अयं न एत्थ संदेहो । वच्च तुमं अइतुरिओ, कन्तापरिरक्वणं कुणसु ॥ ५० ॥ एव भणिओ नियत्तो, तूरन्तो पाविओ तमुद्देसं । न य पेच्छइ जणयसुर्य, सहसा ओमुच्छिओ रामो ॥ ५१ ॥ पुणरवि य समासत्थो, 'दिट्ठी निक्खिीवइ तत्थ तरुगहणे । घणपेम्माउलहियओ, भणइ तओ राहवो वयणं ॥ ५२ ॥ एहेहि इओ सुन्दरि!, वाया मे देहि मा चिरावेहि । दिट्ठा सि रुक्खगहणे, किं परिहास चिरं कुणसि? ॥ ५३ ॥ कन्ताविओगदुहिओ, तं रणं राहवो गवेसन्तो । पेच्छइ तओ जडागि, केंकायन्तं महिं पडियं ।। ५४ ॥
पक्खिस्स कण्णनावं, देइ मरन्तस्स सुहयनोएणं । मोत्तण पूइदेह, तत्थ जडाऊ सुरो जाओ॥ ५५ ॥ रुष्ट जटायुने नाखून और चोंचसे रावणके विशाल वक्षस्थल पर प्रहार किया । (४०) उस नोटसे रुष्ट हो गुस्से में आये हुए रावणने हस्तग्रहारसे उसके शरीरको चूर्ण-विचूर्ण करके जल्दी ही जमीन पर गिरा दिया। (४१) मूळसे विह्वल पक्षी जबतक प्रतिबोध प्राप्त नहीं करता, तबतक तो रावण सीताको पुष्पक विमानमें ले आया। (४२) उस विमानमें स्थित सीताने जब अपना अपहरण होता जाना तब अत्यन्त शोकके वशीभूत हो वह रोने लगी। (४३) तब राक्षसपति सोचने लगा कि करुण विलाप करती हुई यह बहुत कहने पर भी मुझपर रोष रखती है और प्रसन्न नहीं होती (४४) अथवा, साधुके समीप मैंने पहले अभिग्रह धारण किया था कि दूसरेकी स्त्री रूपवती होने पर भी यदि अप्रसन्न हो तो उसका उपभोग नहीं करूँगा । (४५) अतः संसारसागरको पार करनेवाले उस व्रतकी मैं रक्षा करूँ। दीर्घकालके पश्चात् यह मुझपर हृदयसे प्रसन्न होगी। (४६) ऐसा सोचकर रावण अपने नगरकी ओर गया।
रामने भी बादलोंकी भाँति गिरते हुए शस्त्रसमूहवाले युद्ध में प्रवेश किया। (४७) पासमें आये हुए रामको देखकर लक्ष्मणने कहा कि सीताको एकाको छोड़कर यहाँ आप क्यों आये हैं । (४८) उन्होंने कहा कि तुम्हारा सिंहनाद सुनकर मैं यहाँ आया हूँ। प्रत्युत्तरमें उसने रामसे कहा कि आप सीताके पास जाय । (४९) हे महाशय ! इसमें सन्देह नहीं है कि मैं इन शत्रुओंको जीत लूँगा। आप अतिशीघ्र जावें और पत्नीकी रक्षा करें। (५०) इस तरह कहे गये राम वापस लौटे और शोघ्र ही उस स्थान पर पहुँच गये। जनकसुता सीताको न देखकर वे सहसा मूर्छित हो गये। (५१) पुनः समाश्वस्त होने पर उन्होंने वनराजिके ऊपर दृष्टि डाली। तब अत्यन्त प्रेमके कारण आकुल हृदयवाले रामने ऐसे वचन कहे कि, हे सुन्दरी! तुम आओ, आओ ! मुझे जवाब दो। देर मत लगाओ। वृक्षों के वनमें मैंने तुम्हें देख लिया है। तुम देरसे परिहास क्यों करती हो? (५२-५३) .
कान्ताके वियोगसे दु:खित रामने सीताको खोजते खोजते वनमें जमीन पर गिरकर शब्द करते हुए जटायुको देखा । (५४) उन्होंने मरते हुए पक्षीके कानमें जैसे ही नमस्कार मंत्र सुनाया। वैसे ही अपवित्र देहका परित्याग करके पुण्योदयके कारण जटायु देव हुआ। (५५) पुनः प्रियाको याद करके वे मूर्छित हो गये। होशमें आने पर 'सीता, सीता'
१. सौयं-प्रत्यः। २. एगागि जणयसुयं-प्रत्य। ३. दिठिं-प्रत्य० ।
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