Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 353
________________ ३०० पउमरियं [३९. ११४एव भणिओ पयट्टो, समयं बालाएँ पत्थिओ भवणं । विन्नवइ पायवडिओ, विलासिणी! देहि मे कन्नं ॥ ११४ ॥ ताव च्चिय पढमयर, कयसंदेसेण नरवरिन्देणं । वेसाएँ पायवडिओ, दिट्ठो सो तावसो धिट्टो ॥ ११५ ॥ खररज्जवेसु बद्धा, खलियारं पाविओ पहायम्मि । पुहइ भमन्तो य मओ, किलेसजोणीसु उप्पन्नो ॥ ११६ ॥ कम्मपरिनिज्जराए, कह विय मणुयत्तणम्मि आयाओ। धण-बन्धु-सयणरहिओ, जणओ विगओ परविएस ॥ ११७॥ जाए कुमारभावे, हरिया जणणी वि तस्स मेच्छेहिं । अइदुक्खिओ समाणो, तावसधम्म समल्लीणो ॥ ११८ ॥ अइकट्ठे बालतवं, विहिणा काऊण आउगे झीणे । जाओ जोइसवासी, देवो अणलप्पहो नाम ॥ ११९ ।। भयवं अणन्तविरिओ, सिस्सेणं पुच्छिओ विबुहमज्झे । मुणिसुबयस्स तित्थे, होही को केवली अन्नो? ॥ १२० ॥ भणइ तओऽणन्तबलो, मह निवाणं गयस्स होहन्ति । समणा समाहियमणा, दो वि जणा केवली एत्थ ॥ १२१ ॥ निम्गन्थसमणसीहो, पढमो च्चिय देसभूसणो नाम । कुलभूसणोऽत्थ बीओ, केवलनाणी जगुत्तारो ॥ १२२ ॥ अणलप्पभो वि सुणिउं, केवलिमुहकमलनिग्गयं वयणं । हियएण अणुसरन्तो, निययहाणं समल्लीणो ॥ १२३ ॥ अह अन्नयाऽवहीणं, अम्हे नाऊण एत्थ कयजोगा । जंपइ करेमि मिच्छा, अणन्तविरियस्स वयणं तं ॥ १२४ ॥ अहिमाणेण तुरन्तो, इहागओ पुबवेरदढरोसो । काऊण य उवसम्गं, अइघोरं पत्थिओ सघरं ॥ १२५ ॥ नारायणसहिएणं, राघव! जं ते कयं तु वच्छल्लं । कम्मक्खएण अम्ह, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥ १२६ ॥ सुणिऊण एवमाई, वेरनिमित्तं तु परभवदुहट्ट । परिहरह वेरकज्ज. धम्मक्कमणा सया होह ॥ १२७ ॥ एवं ते सुरमणुया, सुणिऊणं देसभूसणुल्लावे । भीया भवदुक्खाणं, सम्मत्तपरायणा जाया ॥ १२८ ॥ गिरकर वह बिनती करने लगा कि, हे विलासिनी ! मुझे कन्या दो । (११४) उस समय पहलेसे किये हुए संकेतके अनुसार राजाने वेश्याके चरणमें गिरे हुए उस धृष्ट तापसको देखा। (११५) मजबूत रस्सीसे बाँधा हुआ वह प्रभातमें तिरस्कृत किया गया। पृथ्वीपर घूमता वह मर गया और दुःखजनक योनियोंमें उत्पन्न हुआ। (११६) कर्मकी निर्जरा होनेपर किसी तरहसे मनुष्यजन्ममें आया। धन, बन्धु एवं स्वजनसे रहित उसका पिता भी परदेश चला गया। (११७) जब वह कुमार भावमें आया तब उसकी माताका म्लेच्छोंने अपहरण कर लिया । अतिदुःखित होनेपर उसने तापसधर्म अंगीकार किया। (११८) अत्यन्त कठोर अज्ञान-तप करके आयुके क्षीण होनेपर वह अनलप्रभ नामका ज्योतिष्क देव हुआ। (११९) देवोंके बीच शिष्यने अनन्तवीर्यसे पूछा कि, हे भगवन् ! मुनिसुव्रतस्वामीके तीर्थमें दूसरा कौन केवली होगा? (१२०) तब अनन्तवीर्यने कहा कि मेरे निर्वाणमें जानेके बाद समाहितमनवाले दो श्रमण यहाँ केवली होंगे। (१२१) पहला निर्ग्रन्थ श्रमणोंमें सिंहके समान देशभूषण नामका केवलज्ञानी और दूसरा संसारको तारनेवाला कुलभूषण नामका केवलज्ञानी होगा। (१२२) अनलप्रभ भी अपना वृत्तान्त जानकर केवलीके मुखकमलसे निकली हुई वाणीको हृदयसे याद करता हुआ अपने स्थानपर गया । (१२३) एक बार अवधिज्ञानसे जानकर कि हमने यहाँ योग किया है, उसने कहा कि मैं अनन्तवीर्यके उस कथनको मिथ्या करूँ। (१२४) पूर्वके वैरसे अत्यन्त रोषयुक्त वह अभिमानके साथ यहाँ आया। अतिभयंकर उपसर्ग करके वह अपने घरकी ओर चला गया। (१२५) हेराघव! नारायण (लक्ष्मण) के साथ तुमने जो वात्सल्य दिखलाया है उससे कर्मक्षय होनेपर हमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । (१२६) इस तरह परभवमें दुर्निवार ऐसे वैरके बारेमें सुनकर वैरका परित्याग करो और धर्म में ही सदा लीन रहो। (१२७) देशभूषण मुनिका ऐसा उपदेश सुनकर देव और मनुष्य भव-दुःखसे भयभीत हो सम्यक्त्वपरायण हुए। (१२८) तब गरुड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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