Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 354
________________ ३०१ ४०. रामगिरिउवक्खाणं ताव य गरुडाहिवई, नमिऊणं केवली भणइ रामं । निसुणेहि मज्झ वयणं, सिणेहदिट्टी पसारेउं ॥ १२९॥ जेणं तु पाडिहेरं, मज्झ सुयाणं कयं सुमणसेणं । जं मग्गसि हियइटुं, तं ते वत्थु पणामेमि ॥ १३० ॥ परिचिन्तिऊण रामो, भणइ सुरं जइ तुम पसन्नो सि । तो आवई हि अम्हे, नियमेणं संभरिज्जासु ॥ १३१ ॥ अह ते चउप्पयारा, देवा नमिऊण केवली पयया । निययाणियपरिकिण्णा, जहागया पडिगया सबे ॥ १३२॥ जे देसभूसणकुलस्स विभूसणाणं, एयं सुणन्ति चरियं सुविसुद्धभावा । ते उत्तमा जणियधम्मधुरा समत्था, बुद्धीफलं च विमलं अणुहोन्ति भंबा ॥ १३३ ।। ॥ इय पउमचरिए देसभूसण-कुलभूसणवक्खाणं नाम एगूणचत्तालं पव्वं समत्तं ॥ ४०. रामगिरिउवक्खाणं सुणिऊण पउमणाभो, मुणिवरवसभाण कुणइ जयसई । एत्तो य समुदएणं, सो वि य पणओ नरिन्देहिं ॥ १ ॥ वंसत्थलपुरसामी, सुरप्पभो नरवई भणइ रामं । अम्ह पसाओ कीरउ, पविससु नयरं मणभिरामं ॥ २ ॥ सुटु वि पत्थिज्जन्तो, न पविट्ठो राघवो उ तं नयरं । सबनरिन्देहि समं, तत्थेव ठिओ जहिच्छाए ॥ ३ ॥ नाणाविहतरुछन्ने, नाणाविहपक्खिकलरवुग्गीए । वरकुसुमगन्धपवणे, निज्झरपवहन्तविमलजले ॥ ४ ॥ दप्पणयलसमसरिसा, तक्खणमेत्तेण सज्जिया भूमो । रङ्गावली विरइया, दसद्धवण्णेण चुण्णेणं ॥ ५ ॥ सुरहिसुगन्धेण पुणो, समचिया बहुविहेहि कुसुमेहिं । सहसा वि समुस्सविए, धय-घण्टा-तोरणे रइए ॥ ६ ॥ धिपतिने केवलीको वन्दन करके रामसे कहा कि स्नेहदृष्टि फैलाकर आप मेरा वचन सुनें । (१२९) तुमने चूँकि सुन्दर मनके साथ मेरे पुत्रोंका प्रातिहार्य किया है, अतः मनमें जो प्रिय हो वह यदि तुम माँगोगे तो मैं वह वस्तु तुम्हें अर्पित करूंगा। (१३०) रामने सोचकर देवसे कहा कि यदि तुम प्रसन्न हो तो हमारी आपत्तियों में तुम नियमतः स्मरणीय बनो । (१३१) इसके बाद अपनी अपनी सेनासे घिरे हुए चारों प्रकारके सब देव केवलीको प्रणाम करके चले गये और अपने अपने स्थानमें लौट आये। (१३२) जो विशुद्ध भावसे देशभूषण तथा कुलभूषणका यह चरित सुनते हैं वे उत्तम, धर्मरूपी धुरा धारण करनेवाले तथा समर्थ भव्य जन ज्ञानके विमल फलका अनुभव करते हैं। (१३३) ॥ पद्मचरितमें देशभूषण तथा कुलभूषणका आख्यान नामक उनचालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। ४०. रामगिरि-उपाख्यान मुनिवरोंसे धर्मोपदेश सुनकर रामने उनकी जयध्वनि की। उधर राजाओं द्वारा वे भी हर्षपूर्वक प्रणाम किये गये। (१) वंशस्थलपुरके स्वामी राजा सुरप्रभने रामसे कहा कि मुझपर आप अनुग्रह करें और मनोहर नगरमें प्रवेश करें। (२) अतिशय प्रार्थना करनेपर भी रामने उस नगरमें प्रवेश नहीं किया और सब राजाओंके साथ वहीं इच्छानुसार ठहरे। (३) नानाविध वृक्षोंसे आच्छादित, नाना प्रकारके पक्षियों के कलरवसे संगोतमय, पुष्पोंकी सुन्दर गन्ध और पवनवाले तथा झरनोंमें बहते हुए निर्मल जलसे युक्त उस स्थानपर तत्काल ही दणके समान भूमि सम एवं स्वच्छ करके सजाई गई और पाँचों वर्णके चूर्णसे (पन रचे गये । (४-५) सुगन्धित गन्ध तथा बहुविध पुष्पोंसे अर्चित उस भूप्रदेशमें सहसा उन्नत ध्वजाएँ, घण्टे एवं तोरण रचे गये। (६) राजाकी आज्ञासे लोग वहीं आभरण, भूषण, शयनासन एवं विविध १. सोक्खं-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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