Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 365
________________ ३१२ पउमचरियं [४३.२८ अह सो पउमसयासं, सोमित्ती पथिओ गहियखग्गो । परिपुच्छिओ य साहइ, तं वित्तन्तं अपरिसेसं ॥ २८॥ ताव चिय चन्दणहा, पइदियहं पत्थिया सुयसमीवं । पेच्छइ य सिरकबन्धं, छिन्नं पडियं धरणिवढे ॥ २९ ॥ सुयसोगसल्लियङ्गी, मुच्छा गन्तूण पुणरवि विउद्धा । हा पुत्त! कयारावा, रुयइ विमुक्कंसुसलिलोहा ॥ ३० ॥ बारस वरिसाणि ठिओ, चत्तारि दिणाणि जोगजुत्तमणो। तिणि अहोरत्ता पुण, न खामिया मे कयन्तेणं ॥ ३१ ॥ किं तुज्झ अवकयं जे, पावविही! निहुरं मए कम्मं ? । पुत्तो बहुगुणनिलओ, जेण अयण्डम्मि अवहरिओ ॥ ३२ ॥ अहवा वि अपुण्णाए, कस्स वि विनिवाइओ मए पुत्तो। तस्सेयं कम्मफलं, उवट्ठियं नत्थि संदेहो ॥ ३३ ॥ परिचिन्तिया य पुत्तय ! मणोरहा ना मए अपुण्णाए । ते अन्नहा य सिग्धं, विहिणा परियत्तिया सबे ॥ ३४ ॥ घेत्तण पुत्तवयणं, परिचुम्बइ रुहिरकविच्छुरियं । सलिलं व वियसियच्छी, कलुणपलावं च कुणमाणी ॥ ३५॥ परिदेविऊण सुइरं, कोवं घेत्तूण तं वणं भीमं । परिभमइ गवसन्ती, चन्दणहा वेरियं सिग्धं ॥ ३६ ॥ सा तत्थ परिभमन्ती, दट्ठणं राम-लक्खणे दो वि । मयणसरसल्लियङ्गी, मुश्चइ कोवं च सोगं च ।। ३७ ॥ सा ताण तक्खणं चिय, अभिलासमुवागया विचिन्तेइ । एक वरेमि गन्तुं, कनारूवं तओ कुणइ ॥ ३८ ॥ तो सा कयनेवच्छा, ताण सयासं लहुँ समणुपत्ता । नयणंसुए मुयन्ती, पुण्णागतलम्मि उवविट्ठा ॥ ३९ ॥ दट्टण जणयतणया, तं वालं करयलेण परिमुसइ । भणइ य अम्ह सयासं, अवट्ठिया मा भयं नासि ॥ ४० ॥ भणिया य राघवेणं, का सि तुमं बालिए! इहारणे । परिहिण्डसि एगागी, सीहाइनिसेविए घोरे? ॥ ११ ॥ सा जपइ मम गेहे, कालगया मज्झ सुन्दरा जणणी। ताओ वि तीऍ सोगे, सो च्चिय मरणं समणुपत्तो ॥ ४२ ॥ पावेण परिम्गहिया, सा है सयणेण वज्जिया सन्ती। वेरम्गसमावन्ना, इहागया दण्डगारणं ॥ ४३ ॥ तलवार लेकर लक्ष्मण रामके पास गया। पूछने पर उसने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। प्रतिदिन पुत्रके पास जानेवाली चन्द्रनखाने उस समय धड़से कटे हुए सिरको जमीन पर पड़ा हुआ देखा । (२९) पुत्रके शोकसे पीड़ित शरीरवाली वह मूर्छित हो गई। फिर होशमें आकर 'हा पुत्र!' इस तरहसे शब्द करतो और अश्रृजल छोड़ती हुई वह रोने लगी । (३०) ध्यानमें युक्त मनवाला तू बारह वर्ष और चार दिन ठहरा, परन्तु कृतान्त मेरे लिए तीन दिन रात न ठहरा। (३१) हे दुर्भाग्य ! मैंने निष्ठुर कर्म करके तेरा क्या बिगाड़ा था कि अनेक गुणोंके धाम रूप मेरे पुत्रका असमयमें ही तूने अपहरण किया? । (३२) अथवा अपुण्यशाली मैंने किसीका पुत्र मार डाला होगा। उसीका यह कर्मफल उपस्थित हुआ है, इसमें सन्देह नहीं। (३३) हे पुत्र! दुर्भाग्यशीला मैंने जो मनोरथ सोच रखे थे, विधिने वे सब दूसरे रूपमें पलट दिये। (३४) करुण विलाप करती हुई उस विशालाक्षीने पुत्रके रुधिरके पंकसे व्याप्त मुखको लीलापूर्वक उठाकर चुम्बन किया । (३५) चिरकाल तक रो-धोकर कोप धारण करती हुई चन्द्रनखा जल्दीसे शत्रुको ढूँढ़नेके लिए उस भयंकर वनमें भटकने लगी । (३६) वहाँ घूमती हुई उसने दोनों राम एवं लक्ष्मणको देखकर मदनके बाणसे पीडित अंगवाली हो क्रोध व शोकको छोड़ दिया । (३७) उनकी अभिलाषा रखनेवाली वह तत्काल सोचने लगी कि जा करके इनमेंसे एकका मैं वरण करूँ। तब उसने कन्याका रूप धारण किया । (३८) तत्पश्चात् वस्त्र परिधान करके वह उनके पास जल्दी ही गई और आँखोंमें से आँसू बहाती हुई पुन्नाग वृक्षके नीचे बैठी । (३९) सीताने उस कन्याको देखकर हाथसे सहलाया और कहा कि हमारे पास रहकर तुम भय मत रखना । (४०) रामने पूछा कि हे बाले! तुम कौन हो? सिंहादि द्वारा आश्रित इस घोर अरण्यमें तुम अकेली क्यों घूमती है ? (५१) उसने कहा कि मेरे घरमें मेरी सुन्दर माता मर गई है। उसके शोकसे पिता भी मृत्युको प्राप्त हुए हैं। (४२) पापी स्वजन द्वारा परिगृहीत और फिर परित्यक्त मैं वैर रूपी अग्नि धारण करके इस दण्डकारण्यमें आई हूँ। (४३) घूमती हुई मैंने पुण्यके योगसे तुम्हें किसी तरह यहाँ देख लिया। अशरण और दुःख १. मुच्छं-प्रत्य० । २. पङ्कपिञ्जरियं-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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