Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 363
________________ ३१० [४२. ३६ पउमचरियं एवं कहासु विविहासु रईसमग्गा, आहार-पाण-सयणा-ऽऽसणसंपउत्ता । कालं गमेन्ति सलिलोहतडिच्छडालं, रण्णे सुहेण निययं विमलप्पभावा ॥ ३६ ॥ । इय पउमचरिए दण्डगारण्णनिवासविहाणं नाम थायालीसइमं पव्वं समत्तं ।। ४३. संयुक्तवहणपव्वं एवं पाउसकालो, तत्थऽच्छन्ताण ताण वोलीणो । सरओ च्चिय संपत्तो, कमलवणाणं सिरिं देन्तो ॥ १ ॥ मेहमलपडलमुक्क, धोयं धारासु निम्मलं जायं । रेहइ जलं व गयणं, तारा-कुमुएसु ससि-हंसं ॥ २ ॥ घणवायविमुक्काई, लहिऊण सुहत्थियं पहट्ठाई । पल्लवकरेसु नजइ, नच्चन्ति व काणणवणाई ॥ ३ ॥ पक्खीण कलयलरवो, पवियम्भइ हंस-सारसाईणं । सरियासु सरवरेसु य, कमलुप्पलभरियसलिलेसु ॥४॥ एवंविहम्मि सरए, जाए जेट्टाणुमोइओ एत्तो । रणं परिभममाणो, अग्यायइ लक्षणो गन्धं ॥५॥ चिन्तेइ तो मणेणं, कस्सेसो सुरहिसोयलो गन्धो ? । किं वा तरुस्स कस्स वि, एत्थल्लीणस्स व सुरस्स? ॥ ६ ॥ मन माटादिवर्ट भय। सो कम्स सरहिवरगन्धो? । नारायणो महप्पा. जेणं चिय विम्हर्य पत्तो ॥७॥ पुच्छद मगहाहिवई, भयवं! सो कस्स सुरहिवरगन्धो ? अह भणइ इन्दभूई, सेणिय! बीयस्स जिणवरिन्दस्स । सरणं चिय संपत्तो, एको विज्जाहरनरिन्दो ॥८॥ घणवाहणो ति नाम, भणिओ भीमेण रक्खसिन्देणं । गेहसु लङ्कानंयरी, रक्खसदीवे तिकूडन्था ॥९॥ अन्नं पियं रहस्सं, जम्बूभरहस्स दक्खिणदिसाए । लवणजलस्सुत्तरओ, ठाणं पुढवीऍ विवरत्थं ॥ १० ॥ ठहरे। (३५) इस तरह प्रेमपूर्ण, आहार, पान, शयन एवं आसन से युक्त तथा विमल प्रभाववाले उन्होंने विविध कथानों से जल एवं बिजलीकी बटासे सम्पन्न अपना समय अरण्यमें बिताया। ॥ पद्मचरितमें दण्डकारण्य निवास नामक बयालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । ४३. शम्बूकवध इस प्रकार वहाँ रहते हुए उनका वर्षाकाल व्यतीत हुआ तथा कमलवनों को शोभा देनेवाला शरत्काल आया। (१) उस समय बादलोंके काले आवरणसे मुक्त, पानीको धाराओं से धुलने के कारण निर्मल तारारूपी कुमुदों से व्याप्त तथा चन्द्ररूपी हंससे युक्त गगन जलकी भाँति शोभित हो रहा था। (२) अतिशय पबनसे विमुक्त तथा सुहस्तीको प्राप्त करके प्रहृष्ट वन-उपवन पल्लव रूपी हाथोंसे मानों नाच रहे हैं। (३) कमलसे भरे हुए जलवाले सरोवरों और नदियों में हंस एवं सारस आदि पक्षियोंका कलरव हो रहा था। (४) ऐसे शरत्कालके आने पर बड़े भाई से अनुज्ञाप्राप्त लक्ष्मणको अरण्यमें परिभ्रमण करते हुए गन्ध आई। (५) वह मनमें सोचने लगा कि यह मीठी और शीतल गन्ध किसकी है? क्या यह किसी पेड़ की है या फिर यहाँ रहे हुए किसी देवकी है ? (६) मगधनरेश श्रेणिक पूछता है कि, हे भगवन् ! यह मीठी गन्ध किसकी थी, जिससे कि महात्मा नारायण भी विस्मित हुआ? (७) इस पर इन्द्रभूति गौतमने कहा कि - हे श्रेणिक! दसरे जिनवरेन्द्रकी शरणमें एक विद्याधर राजा श्राया था। (क) उसका नाम घनवाहन था। राक्षसेन्द्र भीमने उसे कहा कि राक्षस द्वीपमें त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंकानगरी तुम ग्रहण करो। (९) दूसरा भी रहस्य सुनो। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में और लवणसमुद्रके उत्तर में पृथ्वीके विवरमें एक स्थान आया है। (१०) १. नयरि-प्रत्य। २. तिकूडत्थं-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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