Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 361
________________ ३०८ पउमचरियं [४२. ५अह ते वणतरुगहणं, लङ्घऊणं च पवए बहवे । अब्भन्तरं पविट्ठा, तस्सारण्णस्स भयरहिया ॥ ५॥ वड-धव-सिरीस-धम्मण-अज्जुण-पुन्नाग-तिलय-आसत्था । सरल कयम्ब-ऽम्बाडय-दाडिम-अङ्कोल्ल-बिल्ला य ॥ ६ ॥ उम्बर-खइर-कविट्टा, तेन्दुग-वंसा य लोणरुक्खा य । सागा य निम्ब-फणसा, अम्बतरू नन्दिरुस्खा य ॥ ७ ॥ वउल-तिलया-ऽइमुत्तय-कोरिण्टय-कुडय-कुज्जयाइण्णं । चम्प-सहयार-अरलुग-कुन्दलयामण्डिउद्देसं ॥ ८ ॥ खज्जूरीसु समीसु य, केयरि-बयरीसु नालिएरीसु । कयलीसु य संछन्नं, अहियं चिय माउलिङ्गीसु ॥ ९॥ तं एवमाइएहिं, तरूहि नाणाविहप्पयारेहिं । नन्दणवणं व नजइ, सबत्तो सुन्दरायारं ॥ १० ॥ पुण्डुच्छुमाइएसु य, सभावजाएसु सस्सनिवहेसु । रेहइ सरेसु रण्णं, कमलुप्पलभरियसलिलेसु ॥ ११ ॥ गय-चमर-सरभ-केसरि-वराह-मय-महिस-चित्तयाइण्णं । ससय-सय-वग्ध-रोहिय-तरच्छ-ऽभल्लाउलंह निच्चं ॥ १२ ॥ कत्थइ फलोणयदुर्म. कत्थइ सियकुसुमधवलिउद्देसं । कत्थइ नीलं हरियं, कत्थइ रत्तारुणच्छायं ॥ १३ ॥ दण्डयगिरिस्स सिहरे, नामेण य दण्डओ महानागो। तेण इमं ससिवयणे, दण्डारणं जणे सिटुं ॥ १४ ॥ एसा वि य कुश्चरवा, महानई विमलसलिलपरिपुण्णा । कलहंसकलयलरवा, सच्छन्दरमन्तपक्खिउला ॥ १५॥ उभयतडट्टियपायव-निवडियवरकुसुमपिञ्जरतरङ्गा । चडुलयरमयरकच्छभ-निचंचियविलुलियावत्ता ॥ १६ ॥ तं दट्ठ ण वरनई, नणयसुया भणइ राघवं एत्तो । जलमजणं महाजस!, किं न खणेकं इह रमामो? ॥ १७ ॥ भणिऊण एवमेयं, अवइण्णो राघवो सह पियाए । मज्जइ विमलजलोहे, करि ब समयं करेणूए ॥ १८ ॥ सुमहुरसरपरिहत्थं, जलमुरवं राघवो बहुवियप्पं । पहणइ लीलायन्तो, हरिसं घरिणीऍ कुणमाणो ॥ १९ ॥ सीया वि तत्थ सलिले. घेत्तणं सुरहिपुण्डरीयाई। दइयस्स पवरकण्ठे, आलयइ निलीणभमराई॥ २०॥ पर्वतोंको लाँधकर भयरहित वे उस अरण्यके भीतर प्रविष्ट हुए । (५) बरगद, धव, शिरीष, धम्मण, अर्जुन, पुन्नाग, तिलक, अश्वत्थ, सरल, कदम्ब, आँवले, अनार, अंकोठ, बिल्व, गूलर, खदिर, कपित्थ, तिन्दुक, बांस, लवणवृत, साग, नीम, कटहल, आम, नन्दिवृक्ष, बकुल, अतिमुक्तक, कोरण्टक तथा शतपत्रिकासे आकीण; चम्पक, सहकार ( कलमी आम), अरटु तथा कुन्दलतासे मण्डित प्रदेशवाला; खजूरी, शमी, करील, बेर, नारियल, कदली एवं बीजौरसे सविशेष छाया हुआ-इस तरह नाना प्रकारके वृक्षोंके कारण सुन्दर आकृतिवाला वह वन नन्दनवनकी भाँति प्रतीत होता था। (६-१०) स्वतः उत्पन्न सफ़ेद ऊख आदि शस्यों तथा कमल एवं उत्पलोंसे भरे हुए पानीवाले सरोवरोंके कारण वह अरण्य शोभित हो रहा था। (११) वह हाथी, चमरीगाय, शरभ, केसरी, वराह, मृग, भैंसे एवं चीतोंसे व्याप्त तथा खरगोश, बाघ, नीलगाय, नाहर एवं भालुओंसे सर्वदा भरापूरा था । (१२) वहाँ कहीं फलसे मुके हुए वृक्ष थे, कहीं सफेद पुष्पोंसे धवलित प्रदेश था, कहीं नील, हरित और कहीं रक्तारुणकी छाया थी। (१३) दण्डकगिरिके शिखर पर दण्डक नामका एक महानाग था, अतः हे शशिवदने! यह दण्डकारण्यके नामसे लोगोंमें कहा जाने लगा। (१४) निर्मल सलिलसे परिपूर्ण, कलहंसोंके कलरवसे शब्दायमान तथा स्वच्छ क्रीड़ा करनेवाले पक्षियोंसे व्याप्त यह क्रौंचरवा नामकी महानदी है ।(१५) दोनों तटपर स्थित वृक्षोंमेंसे गिरनेवाले उत्तम पुष्पोंके कारण पीले रंगवाली तरङ्गोंसे युक्त तथा अत्यन्त चंचल घड़ियाल एवं कछुओंसे सदैव उपमर्दित आवतॊसे व्याप्त यह नदी है। (१६) उस उत्तम नदीको देखकर सीताने रामसे कहा कि, हे महायश! जलस्नानके लिए हम यहाँ एकक्षण क्यों न ठहरें (१७) ऐसा कहने पर प्रियाके साथ राम नदीमें उतरे और हथनीके साथ हाथीकी भाँति निर्मल पानीमें उन्होंने स्नान किया। (१८) पत्नीको हर्षित करते हुए राघवने अनेक प्रकारसे सुमधुर स्वर निकालने में कुशल जलतरंग बजाई । (१९) सीताने भी उस पानीमेंसे भौंरोंसे व्याप्त कमलोंको लेकर अपने पतिके सुन्दर कण्ठमें आरोपित किया। (२०) १. ०ससावयाइण्णं-मु. २. वरनई-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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