Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 362
________________ ३०९ ४२. ३५] ४३. दण्डगारण्णनिवासविहाणं अह ते तत्थ महुयरा, रामेण समाहया परिभमेउं । सीयाएँ वयणकमले, निलिन्ति पउमाहिसङ्काए ॥ २१ ॥ सा ते मत्तमहुयरे, असमत्था वारिउ अइपभूए । सहस त्ति पउमनाभं, अवगृहइ महिलिया धणियं ॥ २२॥ गायन्ति व महुयरा, जयसई पक्खिणो इव कुणन्ति । सुहडा व तडल्लीणा, सत्ता रामस्स मज्जणए ॥ २३ ॥ तो सिसिरसीयलजले, विहिणा परिमज्जिउं नहिच्छाए । उत्तरइ पउमनाहो, नईऍ समयं पिययमाए ॥ २४ ॥ सबङ्गकयाभरणो, अइमुत्तयमण्डवे सुहनिविट्ठो । पउमो भणइ कणिटुं, सुणेहि मह सन्तियं वयणं ॥ २५॥ अत्थेत्थ फलसमिद्धदुमा लयामण्डवेसु उववेया । सच्छोदया य सरिया, गिरी वि एसो रयणपुण्णो ॥ २६ ॥ सिग्धं आणेहि पिया, जणणीहि समं च बन्धवा सके । काऊण पइट्टाणं, रमणिज्जे एत्थ अच्छामो ॥ २७ ॥ भणिओ य लक्खणेणं, एव पहू जं तुमे समुद्दिटुं । अहं पि य कुणइ धिई, एयं चिय दण्डगारणं ॥ २८ ॥ अह ताण तत्थ रणे, अच्छन्ताणं अइच्छिओ गिम्हो । गज्जन्तमेहनिवहो. संपत्तो पाउसो कालो ॥ २९ ॥ गयणं समोत्थरन्ता, मेहा कज्जलनिहा कयाडोवा । वरिसेऊण पवत्ता, धारासंभिन्नमहिवेढा ॥ ३० ॥ घणपडलसमुन्भूओ, अइचण्डो सबओ सगसगेन्तो । नच्चावेइ तरुगणे, पवणो अन्नोन्नभेएहिं ॥ ३१ ॥ नीला हरिया पीया, अन्ने वा पण्डुरा घणा गयणे । रेहन्ति संचरन्ता, अचिराभामण्डिउद्देसा ।। ३२ ।। उन्भिन्नकन्दलदला, हरियङ्करसामला मही जाया । सर-सरसि-वावि-वप्पिण-नवजलभरिया नईपवहा ॥ ३३ ॥ भणिओ य राघवेणं, कुमार! एयारिसे जलयकाले । न हु जुज्जइ तुह गमणं, पडन्तनवसलिलवाहुल्ले ॥ ३४॥ सामच्छिऊण एवं, समासयं सुन्दरं समल्लीणा । सीया-नडागिसहिया, तत्थ ठिया राम-सोमित्ती ॥ ३५ ॥ उन कमलों में रहे हुए भौं रे रामसे आघात पाकर वापस लौटे और कमलकी आशंकासे सीताके बदन-कमलमें छिपनेका प्रयत्न करने लगे। (२१) उन अत्यधिक मत्त भौंरोंको हटानेमें असमर्थ उस स्त्रीने अपने स्वामी रामका सहसा आलिंगन किया। (२२) रामके स्नानके समय मानों भौंरे गा रहे थे तथा पक्षी एवं सुभटोंकी भाँति तट पर स्थित प्राणी जयध्वनि कर रहे थे। (२३) तब शिशिरके समान शीतल जलमें विधिपूर्वक यथेच्छ स्नान करके राम प्रियतमाके साथ नदीमेंसे बाहर निकले । (२४) तब सर्वागमें अलंकार धारण किये हुए तथा अतिमुक्तकके मण्डपमें आरामसे बैठे हुए रामने अपने छोटे भाईसे कहा कि तुम मेरा कहना सुनो । (२५) यहां पर फलसे समृद्ध वृक्ष हैं, मण्डपोंसे युक्त लताएँ हैं, स्वच्छ जलवाली नदी है और रत्नोंसे भरा हुआ पर्वत भी है। (२६) तुम शीघ्र ही पिता एवं माताओंके साथ सभी बन्धुओंको यहाँ लाओ। इस रमणीय स्थानमें नगर बसाकर हम रहें । (२७) इसपर लक्ष्मणने कहा कि, हे प्रभो! आपने जो कहा वह वैसा ही है। यह दण्डकारण्य मुझे भी सुख देता है। (२८) इसके पश्चात् उनके वहाँ रहते रहते ग्रीष्मकाल व्यतीत हो गया और जिसमें बादल गरजते हैं ऐसा वर्षाकाल श्रा पहुँचा । (२९) आकाशमें फैले हुए काजलके समान काले मेघ गर्जना करके धाराओंसे मानो पृथ्वीको लपेट रहे हों इस तरह बरसने लगे। (३०) बादलोंके समूहमें से उत्पन्न, अत्यन्त प्रचण्ड और चारों ओर सग-सग आवाज करता हुआ पवन एक-दूसरेके साथ टकराकर वृक्षोंको नचाता था। (३१) क्षणिक आभासे मण्डित प्रदेशवाले नीले, हरे, पीले तथा सफेद रंग के दूसरे बादल आकाशमें विचरण करते हुए शोभित हो रहे थे। (३२) दहनियाँ और पत्ते जिसमें से फूटे हैं ऐसी पृथ्वी हरे हरे अंकुरों से श्यामल हो गई । सरोवर, तालाब, बावड़ी, खेत तथा नदीके प्रवाह नये जलसे भर गये। (३३) रामने कहा कि, हे कुमार! जिसमें नया पानी खूब गिर रहा है ऐसे वर्षाकालमें तुम्हारा जाना उपयुक्त नहीं है। (३४) ऐसा विचार करके उस सुन्दर स्थानमें वे रहे। सीता एवं जटायुके साथ राम व लक्ष्मण वहीं १. सुहृनिसनो-प्रत्य० । २. धिई-प्रत्यः। ३. महाडोवा-प्रत्यः । Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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