Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 346
________________ २९३ ३९. १७] ३९. देसभूसण-कुलभूसणवक्खाणं देवोवणीयभोगा, सरीरउवगरणमणियमाहप्पा । धणुरयणगहियहत्था, सीहा इव निब्भया धीरा ॥२॥ कत्थइ जलहरसामा, कत्थइ गिरिधाउविद्मावयवा । कत्थइ कुसुमभरेणं, धवलवलायच्छविं वहइ ॥ ३ ॥ एवं कमेण अडविं, वोलेऊणं च तत्थ संपत्ता । वंसइरिसन्नियासे, नयरं वंसत्थलं नामं ॥ ४ ॥ ताव चिय नयरजणो, आगच्छइ अभिमुहो अइबहुत्तो । अन्नोन्नतुरियवेगो, दिट्टो सहसा पलायन्तो ॥ ५॥ तो राघवेण एको, पुरिसो परिपुच्छिओ इमो लोगो । कस्स भएण पलायइ !, एयं साहेहि मे सिग्धं ॥ ६॥ सो भणइ अज्ज दिवसो, तइओ वट्टइ इमम्मि गिरिसिहरे । निसुणिज्जइ अइघोरो, सद्दो लोगस्स भयजणणो ॥ ७ ॥ जइ कोइ अन्ज रत्ति, एहिइ अम्हं वहुज्जयमईओ । तस्स भएण पलायइ, एस जणो नरवइसमग्गो ॥ ८ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, जगयसुया भणइ राघवं एवं । अम्हे वि पलायामो, जत्थ इमो जाइ नयरनणो ॥९॥ भणिया य राघवेणं, सुन्दरि ! किं सुपुरिसा पलायन्ति? । मरणन्तिए वि कज्जे, आवडिए अहिमुहा होन्ति ॥ १० ॥ एवं वारिज्जन्तो, पउमो सोमित्तिणा समं चलिओ । वंसइरिस्स अभिमुहो, नणयसुयं मग्गओ ठविउं ॥ ११ ॥ आरुहिऊण पवत्ता, विसमसिला-सिहर-निज्झराइण्णं । गयणयलमणुलिहन्त, वंसगिरि गहगणासन्नं ॥ १२ ॥ हत्थावलम्बियकरा, कत्थइ विसमे भुयासु उक्खिविउं । कहकह वि पवयवरं, रामेणं विलइया सोया ॥ १३ ॥ ते तत्थ गिरिवरोवरि, नवरं पेच्छन्ति दोण्णि मुणिवसभे । लम्बियकरग्गजुयले, झाणोवगए विगयमोहे ॥ १४ ॥ जणयतणयाएँ सहिया, दोण्णि वि गन्तूण सबभावेणं । सीसकयञ्जलिमउला, अवट्टिया ताण आसन्ने ॥ १५ ॥ ताव य पेच्छन्ति बहू, समन्तओ भमरकज्जलसवण्णे । नागे उत्तासणए. घोररवं चेव कुणमाणे ॥ १६ ॥ नाणावण्णेहि य विञ्छिएहिं तह घोणसेहि घोरेहिं । परिवेढिया मुणी ते, पलोइया दसरहसुएहिं ॥ १७ ॥ वेलों और लताओंके पुष्पांकी गन्धसे समृद्ध ऐसे एक महावनमेंसे लीला करते हुए जा रहे थे। (१-२) कहीं बादलके समान श्याम, कहीं पर्वतकी धातु एवं विद्रमके अवयववाली और कहीं कुसुमसमूहसे सफेद बगुलोंकी-सी कान्ति वह धारण किये था। (३) ऐसे जंगलको क्रमशः पार करके वे वंशगिरिके समीप बसे हुए वंशस्थल नामके नगरमें आ पहुँचे। (४) उस समय एक-दूसरेसे जल्दी जल्दी गति करते हुए और सहसा भागते हुए नगरजन बहुत बड़ी संख्यामें सामने आ रहे थे। (५) तब रामने एक आदमीसे पूछा कि ये लोग किसके भयसे भाग रहे हैं, मुझे यह जल्दी कहो। (६) उसने कहा कि आज तीसरा दिन है कि इस पर्वतके शिखर परसे लोगोंके लिए भयजनक ऐसा एक अत्यन्त भयंकर शब्द सुनाई पड़ता है। (७) यदि आज रातके समय हमारे वघके लिए मनमें उद्यत ऐसा कोई आ जाय तो ? उसके भयके मारे राजाके साथ सब लोग भागे जा रहे हैं। (5) यह वचन सुनकर सीताने रामसे कहा कि जहाँ ये नगरजन जा रहे हैं वहाँ हम भी पलायन करें। (९) इसपर रामने कहा कि, हे सुन्दरी ! क्या सज्जन भागते हैं ? मृत्युजनक कार्य आ पड़ने पर भी वे सामने जाते हैं । (१०) इस प्रकार रोके जाते राम सीताको एक ओर रखकर लक्ष्मणके साथ वंशगिरिकी ओर चले । (११) । निर्मल शिलाओं. शिखरों और झरनोंसे व्याप्त तथा ग्रहसमूहसे व्याप्त आकाशको चूमनेवाले वंशगिरीपर वे चढने लगे। (१२) हाथसे हाथको सहारा दे कर और कहीं विषम स्थानों पर हाथोंमें उठाकर सीसाको किसी तरह रामने पर्वतपर चढ़ाया। (१३) उन्होंने वहाँ गिरिवरके ऊपर दोनों हाथ लटकाये हुए, ध्यानमें लीन तथा मोहरहित दो मुनियोंको देखा। (१४) सीताके साथ वे दोनों जाकर और सर्वभावसे सिर पर हाथ जोड़कर उनके समीप बैठे। (१५) उस समय जन्होंने चारों ओर भ्रमर एवं काजलके समान वर्णवाले, उद्वेगजनक और भयंकर धावाज करते हुए बहुतसे हाथियोंको देखा । (१६) नाना वर्णके चारों ओर फैले हुए तथा भयंकर रूपसे चिंघाड़ते हुए उन्होंने मुनियोंको घेर लिया। दशरथके १. गणाइनं-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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