Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 347
________________ २९४ पउमचरियं [३९.१८ धणुवग्गेहि विहडिउँ, विञ्छिय नागे य सबओ दूरं । जाया लक्खणपउमा, पसन्नहियया तओ दो वि ॥ १८ ॥ पक्खालिऊण रामो, निज्झरसलिलेण साहुचलणजुए । लक्खणसमप्पिएहिं, अच्चेइ य वल्लिकुसुमेहिं ॥ १९ ॥ सत्तिसरिसं च एतो. कुणन्ति मुणिवन्दणं परमतुट्ठा । जणयतणयाएँ समयं, हलहर-नारायणा दो वि ॥ २० ॥ वीणा मणोहरसरा, पउमो घेत्तण वायई विहिणा । साहुगुणसंपउत्तं, गायइ गेयं च बहुभेयं ॥ २१ ॥ भावेण जणयतणया, मुणिपुरओ नच्चिउँ समाढत्ता । लीला-विलास-अभिणय, दावेन्ती चलचलन्तोरू ॥ २२ ॥ ताव चिय अत्थाओ, मइलन्तो अम्बरं दियसनाहो । उवसग्गरस व भीओ, किरणबलेणं समं नहो ॥ २३ ॥ सहसा समोत्थयं चिय, गयणयलं भूयसयसहस्सेसु । दाढासंघटुट्ठिय-हुयवहजालं मुयन्तेसु ॥ २४ ॥ मुञ्चन्ति सिर-कलेवर-जङ्घाई बहुविहाई अङ्गाई। घणविन्दुरुहिरवास, वासन्ति य तडतडारावं ॥ २५ ॥ केई तिसूलहत्था, अन्ने असि-कणय-तोमरकरग्गा । मुक्कट्टहासभीसण-संखोभियदसदिसायका ॥ २६ ॥ गय-वग्घ-सीह-चित्तय-सिवामुहुजलियभीसणायारा । अह खोभिउं पवत्ता, भूया समणे समियपावे ॥ २७ ॥ आलोइऊण सीया, अणेयवेयाल-भूयसंघट्ट । नच्चणविहिं पमोत्त, भीया रामं समल्लीणा ॥ २८ ॥ भणिया य राधवेणं, चिट्ठसु भद्दे ! मुणीण पामूले । अहयं पुण उवसग्गं, लक्खणसहिओ पणासेमि ॥ २१ ॥ घेत्तण धणुवराई, दोहि वि अप्फालियाई अइगाढं । सद्देण तेण सेलो, नज्जइ आकम्पिओ सयलो ॥ ३०॥ अह सो जोइसवासी, देवो अणलप्पभो ति नामेणं । अवहिविसएण जाणइ, हलहर-नारायणा एए ॥ ३१ ॥ मायाविगुधियं तं, उवसम्गं मुणिवराण अवहरिउं । वच्चइ निययविमाणं, गयणं पि सुनिम्मलं जायं ॥ ३२ ॥ पुत्रोंने उन्हें देखा । (१७) उन्होंने धनुषको टंकारसे विह्वल करके तथा तितर-बितर करके उन हाथियोंको बहुत दूर भगा दिया। तब दोनों राम व लक्ष्मण मनमें प्रसन्न हुए । (१८) मरनेके पानीसे साधुओंके चरणोंका प्रक्षालन करके लक्ष्मणके द्वारा दिये गये लता-पुष्पोंसे रामने पूजा की। (१९) सीताके साथ हलधर और नारायण (राम और लक्ष्मण) दोनोंने अत्यन्त तुष्ट हो यथाशक्ति मुनिको वन्दन किया। (२०) मनोहर स्वरवाली वीणा लेकर रामने विधिपूर्वक बजाई और साधुके गुणोंसे युक्त नानाविध गीत गाये । (२१) लीलापूर्वक और विलासके साथ अभिनय करती हुई तथा चपल जंघावाली सीता मुनिके आगे भावपूर्वक नाचने लगी। (२२) सी 'समय आकाशको मलिन करता हुआ सूर्य अस्त हो गया। मानो उपसर्गसे डरकर किरण रूपी सेनाके साथ वह भाग गया। (२३) उस समय दाँतोंके पोसनेसे उठी हुई अग्निकी ज्वालाको छोड़नेवाले लाखों भूतोंसे आकाश सहसा आच्छादित हो गया। (२४) वे सिर, शरीर और जाँघ आदि अनेक प्रकारके अवयव फेंकने लगे तथा बादलोंकी बूंदोंकी तरह तड़तड़ भावान करती हुई रुधिरकी वर्षा करने लगे। (२५) कई भूतोंके हाथमें त्रिशूल था, दूसरोंके हाथमें तलवार, कनक व तोमर थे। मुक्त अट्टहास्यके कारण भीषण लगने वाले उन्होंने दसों दिशाओंको संक्षोभित कर दिया । (२६) हाथी, बाघ, सिंह, चीते और सियारके मुखवाले तथा ऊँची ज्वालाओंसे युक्त भीषण प्राकृतिवाले वे भूत निष्पाप श्रमोंको सुब्ध करने लगे। (२७) बहुतसे पिशाच और भूतोंके समूहको देखकर भयभीत सीता नाचना छोडकर रामके पास आई । (२८) रामने कहा कि, हे भद्रे ! तुम मुनियोंके चरणों में बैठो। लक्ष्मणके साथ मैं उपसर्गका नाश करता हूँ। (२९) दोनोंने धनुष लेकर खूब आस्फोटन किया। मालूम होता है, उस आवाजसे सारा पर्वत कॉप गया । (३०) तब अनलप्रभ नामके उस ज्योतिष्क देवने अवधिज्ञानसे जाना कि ये हलधर और नारायण हैं । (३१) मुनियों के ऊपर मायाके द्वारा किये गये उस उपसर्गका संवरण करके वह अपने विमानमें चला गया। आकाश भी अतिनिर्मल हो गया। (३२) १. वीणं मणोहरसरं-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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