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पउमचरियं
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[३९. ४९सो समणसङ्घसहिओ, साहू मइवद्धणो वरुज्जाणे । उवविठ्ठो गणजेट्ठो, तसपाणविवज्जिउद्देसे ॥ ४९ ॥ उज्जाणवालएणं, सिट्ट गन्तूण नरवरिन्दस्स । सामिय वसन्ततिलए, उज्जाणे आगया समणा ॥ ५० ॥ सोऊण वयणमेयं, नराहिवो विजयपचओ गन्तुं । मइवद्धणमाईए, पणमइ समणे समियपावे ॥ ५१ ॥ नमिऊण मुणिवरिन्द, जंपइ भोगेसु मज्झ अहिलासो । भयवं! साहवचरियं, असमत्थो धारिउ अहयं ॥ ५२ ॥ भणइ मुणी मुणियत्थो, नरवइ ! ना एस भोगतण्हा ते । भवसयसहस्सजणणी, संसारनिबन्धणकरी य ।। ५३ ॥ गयकण्णतालसरिसं, विजुलयाचञ्चलं हवइ जीयं । सुमिणसमा होन्ति इमे, बन्धुसिणेहा य भोगा य ॥ ५४ ।। खणभङ्गुरे सरीरे, का एत्थ रई सभावदुग्गन्धे । नरयसरिच्छे घोरे, दुगुञ्छिए किमिकुलावासे ॥ ५५ ॥ वस-कलल-सेम्भ-सोणिय-मुत्तासुइकद्दमे मलसभावे । वसिऊण गब्भवासे, पुणरवि तं चेव अहिलससि ॥ ५६ ॥ एवंविहम्मि देहे, जे पुरिसा विसयरागमणुरत्ता । ते दुहसहस्सपउरे, घोरे हिण्डन्ति संसारे ॥ ५७ ॥ एवं चिय मणहत्थि, वच्चन्तं विसयसंकडपहेसु । वेरग्गबलसमग्गो, धरेहि नाणकुसेण तुमं ॥ ५८ ॥ पणमसु जिणं नराहिव, भत्तिं काऊण वज्जिय कुदिट्ठी। संसारसलिलनाहं, जेण अविग्घेण उत्तरसि ॥ ५९ ।। मोहारिमहासेन्नं, हन्तूणं संजमासिणा सिग्धं । अज्झासिय सिद्धिपुरं, करेह रज भयविमुक्कं ॥ ६० ॥ जं एव मुणिवरेणं, भणिओ चिय विजयपबओ राया। संवेगसमावन्नो, मुणिस्स पासम्मि निक्खन्तो ॥ ६१ ॥ ते वि तहिं जिणविहियं, नाणं सोऊण भायरो दो वि । वेरग्गजणियकरुणा, समणत्तं जाव पडिबन्ना ॥ ६२ ॥ सम्मेयपवयं ते. बन्दणहेउम्मि तत्थ वच्चन्ता । मग्गाओ पन्भट्ठा, इसिण्डपल्लिं समणुपत्ता ॥ ६३ ॥
जो विय सो वसुभूई. मेच्छो ते साहवे तहिं दटुं । सविऊण समाढत्तो, ककस-फरुसेहि वयणेहिं ॥ ६४॥ साथ समुदायमें ज्येष्ठ वह मतिवर्धन साधु सुन्दर उद्यानमें त्रस एवं दूसरे प्राणियोंसे रहित स्थानमें ठहरे। (४९) उद्यान पालकने जाकर राजासे कहा कि, हे स्वामी! वसन्ततिलक उद्यानमें श्रमण पधारे हैं । (५०) ऐसा कथन सुनकर विजयपर्वत राजाने जाकर मतिवर्धन आदि निष्पाप साधुओंको वन्दन किया । (५१) मुनिवरको नमन करके उसने कहा कि, हे भगवन् ! भोगोंमें मुझे अभिलाषा है, अतः साधुका चारित्र ग्रहण करने में मैं असमर्थ हूँ। (५२) इसपर गीतार्थ मुनिने कहा कि
हे राजन् ! तुम्हारी यह जो भोगतृष्णा है वह लाखों भवोंकी जननी और संसारका बन्धन करनेवाली है। (५३) हाथीके कान, तालपत्र (अथवा गजकर्ण नामक द्वीपमें होनेवाले तालपत्र ) तथा विजलोके समान जीवन चंचल होता है। बन्धुजनोंके ये स्नेह और भोग स्वप्न सरीखे होते हैं। (५४) क्षणभंगुर, स्वभावसे ही दुर्गन्धमय, नरकके समान भयंकर, जुगुप्साजनक और कृमियोंके आवासरूप इस शरीरमें आसक्ति कैसी ? (५५) चरबी, कलल, श्लेष्म, रक्त एवं मूत्र रूप अशुचि पदार्थों के कीचड़वाले और स्वभावसे ही मलरूप ऐसे गर्भवासमें निवास करके पुनः उसीकी अभिलाषा तुम करते हो। (५६) ऐसे शरीरमें जो पुरुष विषयरागसे अनुरक्त होते हैं वे हजारों दुःखोंसे भरे हुए घोर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। (५७) इस प्रकार विषयरूपी संकटाकीर्ण पथमें जाते हुए मनरूपी हाथीको वैराग्य बलसे युक्त हो ज्ञानरूपी अंकुशसे तुम काबूमें रखो। (५८) हे राजन् ! कुदृष्टिका परित्याग करके भक्तिपूर्वक जिनेश्वरको वन्दन करो, जिससे संसाररूपी सागरको तुम निर्षिन पार कर सकोगे। (५९) मोहरूपी शत्रुके महासैन्यको संयमकी तलवारसे शीघ्र ही मारकर और सिद्धिरूपी नगरमें अधिष्ठित हो भयसे विनिर्मुक्त राज्य करो। (६०)
मुनिवरके द्वारा इस तरह कहे गये विजयपर्वत राजाने वैराग्य धारण करके उसी मुनिके पास दीक्षा ली । (६१) वहाँ जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट ज्ञानको सुनकर उन दोनों भाइयोंको वैराग्य-जनित करुणा हो आई। उन्होंने भी श्रमणत्व अंगीकार किया । (६२) सम्मेतपर्वतके ऊपर वन्दनके लिए जाते हुए वे मार्ग भूल गये और अनार्योंके एक गाँव में जा पहुँचे । (६३) वहाँ जो वसुभूति म्लेच्छ था वह उन साधुओंको देखकर कर्कश एवं कठोर वचनोंसे गालियाँ देने लगा। (६४)
१. कुदिठिं--प्रत्य।
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