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३४.४]
३४. सीहोदर-रुद्दभुइ-वालिखिल्लोवक्खाणाणि भरहस्स सयलदेस, मोत्तणं मलयपवए अम्हे । काऊण पइट्ठाणं, निययपुरं आगमिस्सामो ॥ १४१ ॥ एयाण अहं तइया, पाणिम्गहणं करेमि कन्नाणं । भणियं च एवमेयं, सबेहि वि नरवरिन्देहिं । १४२ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, तत्थ विसण्णाओ रायधूयाओ । घणविरहजलावत्ते, सोगसमुद्दम्मि पडियाओ ॥ १४३ ॥ एवं ते नरवसभा, विमणाओ गेण्हिऊण धूयाओ। निययघराणि उवगया, दसरहपुत्ते पणमिऊणं ॥ १४४ ॥ तत्थेव जिणहरे ते, रत्तिं गमिऊण अरुणवेलाए । पुणरवि पहं पवन्ना, बच्चन्ति सुहं जहिच्छाए ॥ १४५ ॥ चेइयहरं पभाए, सुन्नं दट्टण जणवओ सबो । घरवावारविमुक्को, जाओ च्चिय ताण सोगेणं ॥ १४६ ॥ वज्जसमणेण समयं, जाया सीहोयरस्स वरपीई । सम्माण-दाण-गमणाइएसु परिवड्डियसिणेहा ॥ १४७ ॥
एवं ते मन्दमन्दा दसरहतणया 'मेइणी संचरन्ता, नाणागन्धाइपुण्णे तरुणतरुफले भुञ्जमाणा पभूए। पत्ता ते कूववई बहुभवण-महावप्प-वावीसमिद्धं, उज्जाणे सन्निविट्ठा विमलकुसुमिए मत्तभिङ्गाणुगीए ॥ १४८ ॥
॥ इय पउमचरिए वज्जयण्णउवक्खाणो नाम तेत्तीसइमो उद्देसओ समत्तो।।
३४. सीहोदर-रुद्दभूइ-वालिखिल्लोवक्खाणाणि ताणं चिय उज्जाणे, अच्छन्ताणं तिसाभिभूयाणं । सलिलत्थी तुरन्तो, सोमित्ती सरवरं पत्तो ॥१॥ ताव चिय नयराओ, रायसुओ आगओ सरवरं तं । कीलइ जणेण समयं, नाम कल्लाणमालो त्ति ॥ २ ॥ पेच्छइ तोरावत्थं, सरस्स सो लक्खणं ललियरूवं । पेसेइ तस्स पुरिसं, वम्महसरताडियसरीरो ॥ ३ ॥
गन्तूण पणमिऊण य, भणइ पहू! एह अणुवरोहेणं । तुह दरिसणुस्सवसुह, नरिन्दपुत्तो इहं महइ ॥ ४ ॥ लौटेंगे तब मैं इन कन्याओंका पाणिग्रहण करूँगा। तब सब राजाओंने कहा कि ऐसा ही हो। (१४१-१४२) ऐसा कथन सुनकर विरहरूपी गहरे भँवरसे युक्त शोकसागरमें पड़ी हुई राजकन्याएँ खिन्न हो गई । (१४३) इस प्रकार दुःखी वे राजा कन्याओंको लेकर तथा दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मणको प्रणाम करके अपने-अपने घरपर लौट आये। (१४४)
वहीं जिनमन्दिरमें रात बिताकर सुबहके समय पुनः उन्होंने रास्ता पकड़ा और इच्छानुसार सुखपूर्वक चलने लगे। (१४५) प्रभातमें मन्दिरको खाली देखकर उनके शोकके कारण सब लोगोंने अपना घरेलू काम छोड़ दिया । (१४६) सिंहोदरकी वनश्रमणके साथ उत्तम प्रीति हो गई और वह स्नेह-सम्मान, अन्नादिके दान तथा गमन आदि द्वारा बढ़ाया गया । (१४७) इस प्रकार पृथ्वीपर मन्द-मन्द परिभ्रमण करते हुए और अनेक प्रकारकी गन्ध आदिसे पूर्ण तरुण वृक्षोंके बहुतसे फल खाते हुए दशरथके वे पुत्र अनेक भवनों, बड़े किले तथा बावड़ियोंसे समृद्ध कूपपद्र नामक नगरमें आ पहुँचे और मत्त भौं रे जिनपर गुनगुना रहे हैं ऐसे विमल पुष्पोंसे व्याप्त उद्यानमें ठहरे। (१४८)
। पद्मचरितमें वज्रकर्ण-उपाख्यान नामक तैंतीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
३४. सिंहोदर-रुद्रभृति-वालिखिल्य उपाख्यान उद्यानमें ठहरे हुए उन राम मादिको जब प्यास लगी तब लक्ष्मण पानीकी खोज करता हुआ एक सरोवरके पास जल्दी ही आ पहुँचा । (१) उसी समय उस नगरमेंसे कल्याणमाल नामका एक राजकुमार भी उस सरोवरके पास आ पहँचा और लोगोंके साथ क्रीड़ा करने लगा। (२) उसने सरोवरके किनारेपर खड़े हुए सुन्दर रूपवाले लक्ष्मणको देखा। कामदेवके बाणसे पीड़ित शरीरवाले उस राजकुमारने उसके पास आदमी भेजा । (३) उसने जाकर और प्रणाम करके कहा कि, हे प्रभो! अनुग्रह करके आप पधारें। आपके दर्शनोत्सवका सुख राजकुमार चाहते हैं। (४) 'इसमें वस्तुतः क्या दोष
१. सवणेण-प्रत्य। २. मेइषि-प्रत्यः ।
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