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३७. अइवीरियनिक्खमणपव्वं सा भणइ तज्झ राघव! अइविरियं तक्खणे वसे काउं । करयलकयञ्जलिउड, सिग्धं चलणेसु पाडेमि ॥४४॥ तो देवयाएँ एत्तो, सिग्धं पुरिसाण महिलियारूवं । लक्खणसहियाण कयं, सुरवहुसरिसं मणभिरामं ॥ ४५ ॥ पुणरवि नमिऊण जिणं, रामो तं नट्टियानणं घेत्तु । पच्छन्नदेहधारी, रायहरं पत्थिओ सहसा ॥ ४६ ॥ दिट्टो सभाएँ राया, आढत्ता नच्चिउं ठिया समुहा । तग्गयमणेण एत्तो, दिट्ठा लोगेण अइरूवा ॥४७॥ गन्धवं तु पगीयं, महुरं सत्तसरगमयसंजुत्तं । बहुविहवियप्पकुहरं, हरइ मणं मुणिवराणं पि ॥ ४८ ॥ अह नच्चिउं पवत्ता, एत्तो सा नट्टिया ललियरूवा । रत्तुप्पलबलियम्मं व देइ चलणेसु वियरन्ती ।। ४९ ॥ नयणकडक्खुक्खेवण-लीलापवियम्भमाणकर-चरणा । इसिहसियथणुक्कम्पण-भमुहासंचाररसभावा ॥ ५० ॥ परिभमइ जत्थ जत्थ य, नच्चन्तो नट्टिया मणभिरामा। कुणइ जणो एगमणो, दिट्टि तत्थेव तत्थेव ॥ ५१ ॥ गायइ उसभाईणं, जिणाण चरियाई तिण्णसङ्गाणं । परिओसिओ य लोगो, सबो वि य नरवईण समं ॥ ५२ ॥ तो नट्टिया पवुत्ता, अइविरियं किं तुमे समाढतं । भरहेण सह विरोहो, अफित्तिकरणो य लोगम्मि? ॥ ५३ ॥ एवं गए वि विणयं, भरहस्स तमं करेहि गन्तूणं । भिच्चत्तणं च ववससु, नइ इच्छसि अत्तणो जोयं ॥ ५४ ॥ सुणिऊण नट्टियाए, इमाणि वयणाणि नरवई रुट्टो । खुहिया य सुहडपुरिसा, वेला इव लवणतोयस्स ॥ ५५॥ नाव च्चिय अइविरिओ, आयड्डइ असिवरं वहत्थाए । तो नट्टियाएँ गहिओ, खग्गं हरिऊण केसेसु ॥ ५६ ॥ नीलुप्पलसंकासं, खग्गं सा नट्टिया समुग्गिरिउ । जंपइ जो महू पुरओ, ठाही सो होइ हन्तबो ॥ ५७ ।। सो नट्टियाएँ भणिओ, नइ पणमसि भरहसामियं गन्तुं । तो होही जीयं ते, न पुणो अन्नेण भेएणं ॥ ५८ ॥ हाहाकारमुहरवो, लोगो भयविहलवेवियसरीरो । भणइ महच्छेरमिणं, चारणकन्नाएँ ववरियं ॥ ५९ ॥
झुकाती हूँ। (४४) तब देवताने शीघ्र ही लक्ष्मण सहित पुरुषोंका देवियोंके जैसा मनोहर स्त्री-रूप किया । (४५) जिनेश्वरको पुनः नमन करके प्रच्छन्नदेहधारी रामने उन नर्तिकाओंको लेकर सहसा राजमहलकी ओर प्रस्थान किया। (४६) उन्होंने सभामें राजाको देखा। सामने खड़े होकर वे नाचने लगीं। उनमें तल्लीन मनवाले लोगोंने अतिरूपवती उन सुन्दरियोंको देखा । (४७) मधुर, सातों स्वर एवं गमकसे युक्त बीचमें नानाविध विकल्पोंवाला तथा मुनिवरोंका मन भी हर ले, ऐसा संगीत उन्होंने गाया । (४८) बादमें सुन्दर रूपवाली वह नटी नाचने लगी और विचरण करतो हुई वह मानों चरणों में रक्त कमल द्वारा पूजन करती हो ऐसा जताने लगीं। (४९) आँखोंसे कटाक्ष फेंकनेवाली, लीलापूर्वक हाथ-पैर हिलानेवाली और मन्द मन्द हास्य, स्तन-कम्पन एवं भौहों के संचार द्वारा रस व भावसे युक्त नाचनेवालो वह सुंदर नर्तकी जहाँ-जहाँ घूमती थीं वहाँ वहाँ लोग तल्लीन हो दृष्टि डालते थे। (५०-५१) वह संसारको पार करनेवाले ऋषभादि जिनोंके चरित गाती थी। राजाके साथ सभी लोग खुश-खुश हो गये । (५२)
तब नर्तिकाने अतिवीर्यसे कहा कि लोगोंमें अकीर्तिकर ऐसा भरतके साथ विरोध तुमने क्यों किया है ? (५३) ऐसा होनेपर भी यदि तुम अपना जीवन चाहते हो तो जा करके भरतका विनय करो और उसकी दासता स्वीकार करो। (५४) नर्तकीके ये वचन सुनकर राजा क्रुद्ध हुआ और लवणसमुद्रको वेलाकी भाँति सुभट पुरुष क्षुब्ध हुए । (५५) जबतक अतिवीर्य वधके लिए तलवार खींचता है तबतक तो नर्तकीने तलवार छीनकर उसे बालोंसे पकड़ लिया। (५६) उस नतकीने नीलकमल के समान तलवारको उठाकर कहा कि जो मेरे सामने खड़ा होता है वह मारा जाता है । (५७, नर्तिकाने उसे कहा कि यदि जा करके तू भरत स्वामीको प्रणाम करेगा तो तेरे प्राण बचेंगे, दूसरे किसी प्रकार नहीं । (५८) मुखसे हाहाकार ध्वनि
१. संचारसभावा-मु० ।
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