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पउमचरियं
[ ३७.६० तो करिवरं विलम्गो. अइविरियं गेण्हिउं पउमणाहो । गन्तूण चेइयहर, तत्थोइण्णो कुणइ पूर्य ॥६०॥ सीयाएँ समं रामो, थोऊण जिणं विसुद्धभावेणं । वरधर्म आयरियं, पणमइ य पुणो पयत्तेणं ॥ ६१ ।। तं लक्खणकरगहियं, अइविरियं पेच्छिऊण जणयसुया। भणइ य मेल्लेहि लहुँ, एस ठिई होइ सुहडाणं ॥ ६२ ॥ जे सबभूयसरणा, साहू तव-नियम-संजमाभिरया । ताण वि खलो खलाइ य, का सण्णा पत्थिवनणेणं ? ॥ ६३ ॥ एवभणिए विमुक्को, अइविरिओ लक्खणेण कयसमओ। भरहस्स होहि भिच्चो, गच्छ तुम कोसला नयरी ॥ ६४ ॥ एवं विमुक्क सन्तो, अइविरिओ राघवं पणमिऊणं । संवेगसमावन्नो, पडिबुद्धो तक्खणं चेव ॥ ६५ ॥ पउमेण तओ भणिओ, मा गेण्हेसु एस दुक्करा चरिया । भरहस्स वसे होउं, भुञ्जसु य तुमं महाभोगं ॥ ६६ ॥ अइविरिओ वि य भणिओ. विट्रो रज्जस्स अज परमत्थो । संसारभउविग्गो. गेण्डामिह देव । पवजं ॥ ६७ ॥ रज्जे विजयरहं सो, पुतं ठविऊण विगयसुयनेहो । आयरियषायमूले, अइविरिओ गेहए दिक्खं ॥ ६८ ॥ कुणइ तवं नीसङ्गो, नत्थऽस्थमिओ निइन्दिओ धीरो । विहरइ वसुंधरं सो, सीहो इव निब्भओ समणो ॥ ६९ ॥
चारित्त-नाण-तव-संजम-सीलजुत्तो, छट्टऽहमेसु निययं परिखीणदेहो ।
रण्णे गुहासु वसहिं च करेइ धीरो, एवंगुणो विमलनाणधरो तिविजो ॥ ७० ॥ ॥ इय पउमचरिए अइविरियनिक्खमणं नाम सत्ततीसइम पव्वं समत्तं ॥ .
करनेवाले तथा भयसे विह्वल हो जिनके शरीर काँप रहे हैं ऐसे लोग कहने लगे कि चारण कन्याने यह बड़ा भारी आश्चर्य किया है । (५५)
तब उत्तम हाथीपर बैठे हुए राम अतिवीर्यको लेकर जिनमन्दिरमें गये। हाथीसे उतरकर वहाँ उन्होंने पूजा की। (६०) सीताके साथ रामने विशुद्ध भावसे जिनकी स्तुति की और उत्तम धर्मका आचरण किया। बादमें श्रद्धापूर्वक वन्दन किया । (६१) लक्ष्मणके द्वारा हाथसे पकड़े हुए उस अतिवीर्यको देखकर सीताने कहा कि इसे शीघ्र ही छोड़ दो, क्योंकि यही स्थिति सुभटोंकी होती है। (६२) जो सब प्राणियों के लिये शरणरूप तथा तप, नियम एवं संयममें निरत रहनेवाले साधु होते हैं उनपर भी दुष्ट दुष्टता करता है, तो फिर पार्थिवजनके बारे में तो कहना ही क्या ? (६३) इस तरह कहनेपर 'तुम भरतके सेवक बनो और कोसलानगरीमें जाओ' ऐसी सन्धि करनेवाला अतिवीय लक्ष्मणके द्वारा छोड़ दिया गया। (६४) इस प्रकार छोड़े जाने पर अतिवीर्यने रामको प्रणाम किया। संसारसे विरक्ति हुई और उसे तत्काल ही प्रतिबोध हुआ। (६५) तब रामने कहा कि साधुका दुष्कर आचार तुम मत ग्रहण करो। भरतके अधीन रहकर तुम बड़े-बड़े भोगोंका उपभोग करो। (६६) इसपर अतिवीर्यने भो कहा कि, हे देव! राज्यका सार मैंने देख लिया है। हे देव ! संसारके भयसे उद्विग्न मैं अब प्रव्रज्या लूँगा। (६७) पुत्रका प्रेम जिसका नष्ट हो गया है ऐसे उस अतिवीर्यने अपने पुत्र विजयरथको राज्यपर स्थापित करके आचार्यके चरणों में दीक्षा ग्रहण की । (६८) निःसंग, जहाँ सूर्यास्त हो वहीं ठहरनेवाला, जितेन्द्रिय और धीर वह श्रमण तप करने लगा तथा सिंहके समान निर्भय हो पृथ्वीपर विहार करने लगा । (६९) चारित्र, ज्ञान, तप, संयम एवं शीलसे युक्त, बेले और तेलेसे अपनी देह क्षीण करनेवाला, विमल ज्ञानका धारक, मति-श्रुत-अवधिरूप तीन ज्ञानोंसे सम्पन्न-ऐसे गुणोंवाला वह धीर अरण्यमें तथा गुफाओंमें निवास करता था। (७०).
॥ पद्मचरितमें अतिवीर्यका निष्क्रमण नामक सैंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
१. नार-प्रत्य । २. गेण्हसु दुकरं जईचरियं-प्रत्यः ।
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