Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 333
________________ २५० पउमचरियं ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ ७० ॥ कविलो नामेणाहं, हवइ सुसम्मा य गेहिणी एसा । तइया मए न नाओ, पच्छन्नमहेसरो सि तुमं वि यस नरिन्दो, परविसयगओ हवेज्ज एगागी । तह वि य परिहवठाणं, पावइ लोए ठिई एसा ॥ सहं, स् ऽन्थो पण्डिओ य सो लोए । जस्सऽत्थो सो गुरुओ, अत्थविहूणो य लहुओ उ ॥ तस्स महत्थो य नसो, धम्मो वि यं तस्स होइ साहीणो । धम्मो वि सो समत्थो, जस्स अहिंसा समुद्दिट्ठा ॥ अहवा किं न सुयं ते?, सणकुमारो समन्तभरहवई । रूवस्स दरिसणट्टे, नस्स सुरा आगया इह ॥ संवेगनणियकरुणो, पबज्जं गेण्हिउं परिभमन्तो । भिक्खं च अलभमाणो, विजयपुरं पाविओ कमसो ॥ पडिलाहिओ महप्पा, कयाइ दारिद्दसमभिभूयाए । पडिया य रयणवुट्ठी, गन्धोदय- पुप्फवरिसं च ॥ एवंविहावि समणा, सुर-नरमहिय - ऽच्चिया दढचरित्ता । परविसयं विहरन्ता, परिभूया दुट्टलोएणं ॥ फरुसाणि अणिट्टाणि य, जं भणिया राग-दोस - मूढेणं । तं खमह अविणयं मे, जो तुम्ह पहू ! कओ तइया कविलं एव रुयन्तं, संथावद राघवो महुरभासी । सीया वि सुसम्मं संभमेण परिनिबुई कुणइ कणयकलसेसु कविलो, किंकरपुरिसेहि पउमआणाए । साधम्मिओ त्ति काउं, कन्ताऍ समं तओ हविओ ॥ भुञ्जाविओ विचित्तं, आहारं भूसिओ य रयणेहिं । दिन्नं च धणं बहुयं, ताहे गेहं गओ विप्पो ॥ आनम्मधणविहीणो, पत्तो जणविम्हयं महाभोगं । तह वि य न करेइ धिईं, सम्माणपराहयसरीरो ॥ विहडिय - पडियं, मज्झ घरं आसि विभवपरिहीणं । रामस्स पसाएणं, नायं धण रयणपरिपुण्णं ॥ हा ! कट्ठे सप्पुरिसा, जं मे निंब्भच्छिया अलज्जेणं । तं मे दहइ सरीरं, सल्लं च अवट्ठियं हियए ७१ ॥ ॥ ॥ ॥ Jain Education International ६४ ॥ For Private & Personal Use Only ६५ ॥ ६६ ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ उस समय मैं न जान सका कि आप प्रच्छन्न ईश्वर हैं । (६४) स्वयं राजा होनेपर भी यदि वह अकेला दूसरे देशमें जाता है तो वह अपमानित होता है। लोकमें ऐसी ही स्थिति है । (६५) जिसके पास पैसा है उसके पास सुख है, जिसके पास पैसा है वही लोक में पण्डित है, जिसके पास पैसा है वही महान् है और जो बिना पैसेका है वह तुच्छ है । (६६) जिसके पास धन है वह महान यशस्वी होता है तथा धर्म भी उसके अधीन होता है। जिस धर्म में अहिंसाका उपदेश दिया गया है वह धर्म भी पैसावाला ही करने में समर्थ होता है । (६७) अथवा क्या आपने नहीं सुना कि जिसके रूपके दर्शनके लिए देव भी यहाँ आते थे वह समस्त भरतक्षेत्रका स्वामी सनत्कुमार चक्रवर्ती वैराग्यके कारण करुणाभाव उत्पन्न होनेपर दीक्षा अंगीकार करके क्रमशः विहार करता हुआ भिक्षा न मिलनेपर विजयपुर में आया था । ( ६८-६९) दारिद्रयसे तिरस्कृत किसी स्त्रीने उस महात्माको भिक्षा दी । फलतः रत्नोंकी वृष्टि तथा सुगन्धित जल एवं पुष्पोंकी वर्षा हुई थी। (७०) देव एवं मनुष्यों द्वारा सत्कृत और सम्मानित तथा दृढ़ चरित्रवाले ऐसे श्रमण भी दूसरे देश में विहार करनेपर दुष्ट लोगों द्वारा अपमानित होते हैं। (७१) हे प्रभो ! राग एवं द्वेषसे मूढ़ मैंने जो कठोर और अनिष्ट वचन कहकर आपका उस समय अविनय किया था उसे क्षमा करें। ( ७२ ) इस प्रकार रोते हुए कपिलको मधुरभाषी रामने आश्वासन दिया । सीताने भी सुशर्माको जल्दी ही शान्त किया । (७३) तब साधर्मिक मानकर पत्नी के साथ कपिलको रामकी आज्ञासे सोनेके कलशों द्वारा परिचारकोंने नहलाया । (७४) उसे अनेक प्रकारका भोजन खिलाया गया, रत्नोंसे अलंकृत किया गया तथा बहुत धन दिया गया। बाद में वह ब्राह्मण घर लौट आया । (७५) जन्मसे ही उस धनविहीनने लोगोंको विस्मित करे इतना भारी ऐश्वर्य प्राप्त किया था, तो भी सम्मान से संकोच अनुभव करनेवाला वह अभिमानी नहीं था । (७६) वह सोचता था कि पहले मेरा घर अस्तव्यस्त, गिरा हुआ और वैभवशून्य था, किन्तु रामके अनुग्रह से अब धन एवं रत्नोंसे भर गया है । (७७) दुःख है कि निर्लज्ज मैंने सत्पुरुषों की जो भर्त्सना को थी वह मेरे शरीरको जला रही है और हृदय में शल्यकी भाँति चुभ रही है। (७८) अठारह १. सम्माणसराहय - प्रत्य० । २. निम्भस्थिया सकज्जेणं - प्रत्य० । [ ३५.६४ www.jainelibrary.org

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