________________
२७३
३४. ३४]
३४. सीहोदर-रुद्दभूइ-वालिखिल्लोवक्खाणागि सुणिऊण वालिखिल्लं, बद्धं सीहोयरो भणइ सामी । जो इह गब्भुप्पन्नो, होही पुत्तो य सो रज्जे ॥ २० ॥ तत्तो य अहं जाया, मन्तीण सुबुद्धिनामधेएणं । सीहोयरस्स सिटुं, सामिय! पुत्तो समुप्पन्नो ॥ २१ ।। बालत्तणम्मि रइयं, नाम कल्लाणमालिणी मज्झं । नवरं चिय सब्भावं, मन्ती जणणो य जाणन्ति ॥ २२ ॥ काऊण पुरिसवेसं, गुरूहि रज्जाहिवो परिट्ठविओ। अहयं तु पावकम्मा, महिला तुम्हें समक्खायं ॥ २३ ॥ तो कुणह पसाय मे, तायं मोएह मेच्छपडिबद्धं । गुरुसोयजलणतवियं, इमं सरीरं सुहावेह ॥ २४ ॥ सीहोयरो वि राया, न य तस्स विमोयणं पहू ! कुणइ । जं एत्थ विसयदवं, निययं पेसेमि मेच्छाणं ॥ २५॥ नयणंसुए मुयन्ती, रामेणाऽऽसासिया ससीएणं । भणिया य लाखणेणं, मह वयणं सुणसु तणुयङ्गी! ॥ २६ ॥ रज्ज करेहि सुन्दरि!, इमेण वेसेण ताव भयरहिया । मोएमि नाव तुज्झं, पियर कइएसु दियहेसु ॥ २७ ॥ एवभणियम्मि तोसं, जणए व विमोइए गया बाला । उल्लसियरोमकूवा, सहस ति समुज्जला जाया ॥ २८ ॥ दिवसाणि तिष्णि वसिउं, तत्थुज्जाणे मणोहरे रम्मे । सीयाएँ समं दोण्णि वि, विणिग्गया सुहपसुत्तजणे ॥ २९ ॥ अह विमलम्मि पहाए, सा कन्ना ते तहिं अपेच्छन्ती । रोयइ कलुणं मयच्छी, सोगावन्नेण हियएणं ॥ ३० ॥ एवं उज्जाणाओ, निययपुरं पविसिऊण सा कन्ना । रजं करेइ नयरे, तेणं चिय पुरिसवेसेणं ॥ ३१ ॥ अह ते कमेण पत्ता, विमलजलं नम्मयं सुवित्थिणं । चक्काय-हंस-सारस-कल-महुरुम्गीयसद्दालं ॥ ३२ ॥ संखुभियमयर-कच्छव-मच्छसमुच्छलियविलुलियावत्तं । तरलतरङ्गुब्भासिय-जलहत्थिविमुक्कसिक्कारं ॥ ३३ ॥ सीयाएँ समं दोण्णि वि. लीलाए नम्मयं समुत्तिण्णा । विझाडवि पवन्ना, घणतरुवर-सावयाइण्णं ॥ ३४ ॥
कहा कि गर्भसे उत्पन्न जो कोई भी पुत्र होगा वह इस राज्यपर प्रतिष्ठित होगा । (२०) इसके पश्चात् मैं उत्पन्न हुई। सुबुद्धि नामके मंत्रीने सिहोदरको कला भेजा कि, हे स्वामी ! पुत्र उत्पन्न हुआ है । (२१) बचपनमें ही मेरा नाम कल्याणमालिनी रखा गया। केवल मंत्री और माता ही सच्ची हकीकत जानते हैं । (२२) पुरुषवेश धारण कराके गुरुजनोंने मुझे राज्यके स्वामीके रूपमें स्थापित किया है, परन्तु मैं तो एक पापी स्त्री हूँ यह मैंने आपसे कहा है। (२३) अब मुझपर अनुग्रह करके म्लेच्छ द्वारा पकड़े गये पिताको आप छुड़ावें और शोकरूपी अग्निसे अत्यन्त पीड़ित इस शरीरको सुख दें। (२४) हे प्रभो! सिंहोदर राजा भी मेरे उन पिताको नहीं छुड़ा सका। इस राज्यका जो द्रव्य है वह मैं नियमित रूपसे म्लेच्छोंको भेजती रहती हूँ। (२५)
आँखोंमेंसे आँसू गिराती हुई उस कन्याको सीता सहित रामने आश्वासन दिया और लक्ष्मणने कहा कि, हे सुन्दरी ! तुम मेरा कहना सुनो । (२६) हे सुन्दरी! जबतक कुछ ही दिनों में मैं तुम्हारे पिताको नहीं छुड़ा लेता तबतक भयरहित होकर तुम यही वेश धारण करके राज्य करो । (२७) ऐसा कहनेपर मानो पिता मुक्त हुए हों ऐसा आनन्द उस कन्याको हुआ और आनन्दसे रोमांचित होकर वह एकदम प्रकाशित-सी हो गई। (२८)
उस मनोहारी और सुन्दर उपवनमें तीन दिन ठहरकर जब लोग आरामसे सोये हुए थे तब सीताके साथ वे दोनों वहाँसे चल दिये । (२९) निर्मल प्रातःकालमें हिरनके जैसी आँखोंवाली वह कन्या उन्हें वहाँ न देखकर शोकपूर्ण हृदयके साथ करुणभावसे रोने लगी । (३०) उद्यानमेंसे निकलकर और अपने नगरमें प्रवेश करके वह कन्या उसो पुरुष वेशमें नगरमें राज्य करने लगो। (३१) इसके पश्चात् वे क्रमशः निर्मल जलसे भरी हुई, अत्यन्त विस्तीर्ण, चक्रवाक, हंस एवं सारसके मधुर गीतसे शब्दायमान, मगरमच्छ व कछुओंके कारण संक्षुब्ध मछलियोंके ऊपर उछलनेके कारण भँवरोंसे व्याप्त, चंचल लहरोंसे उद्भासित तथा जलमें प्रविष्ट हाथियोंकी चिंघाड़ोंसे पूर्ण ऐसी नर्मदा नदीके पास आ पहुँचे । (३२-३३) सीताके साथ दोनों सरलताके साथ नर्मदा नदीको पार करके सघन वृक्षों और वन्य पशुओंसे व्याप्त विन्ध्याटवीके पास आये। (३४)
उस मनोहारी और सुन्दर उपवनमारनके जैसी आँखोंवाली वह कन्या
कन्या उसो पुरुष वेशमें
१. तुभ समक्खाया-मु.। २. समुज्जया-प्रत्य० ।
21
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org