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३१. दसरह पव्वज्जानिच्छ्यविहाणं
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सूरंजएण समय, आयरियं तिलयसुन्दरं सरणं । पत्तो य रयणमाली, दिक्खं निणदेसिय धीरो ॥ सूरजओ महन्तं, काऊण तवं गओ महासुकं । चविओ अणरण्णसुओ, नाओ च्चिय दसरहो सि तुमं ॥ नरबइ थोवेण तुमं, पुण्णेण उवत्थिमाइसु भवेसु । वडबीयं पिव विद्धि, पत्तो सुहकम्मउदपणं ॥ नो आसि नन्दिघोसो, तुझ पिया नन्दिवद्धणस्स पुरा । सो हं गेविज्जचुओ, जाओ मुणिसब भूयहिओ ॥ वि दो जणा, भूरी-उवमच्चुनामधेयाऽऽसि । ते चैव जणय-कणया, इह तुज्झ वसाणुगा जाया ॥ संसारम्मि य घोरे, अणेयभवसय सहस्ससंबन्धे । उवट्टण-परियट्टग, करेन्ति जीवा सकम्मेहिं ॥ एवं मुणिवरभणियं, सुणिऊणं दसरहो भउबिग्गो । अह संजमाभिलासी, जाओ च्चिय तक्खणं चेव ॥ सबायरेण चलणे, गुरुस्स नमिऊण दसरहो राया । पविसरइ निययनयरिं, साएयं जेण-घणाइण्णं ॥ चिन्तेइ तो मणेणं, रज्जं दाऊण पउमनाहस्स । तो सबसङ्गरहिओ, मुत्तिसुहं चेव पत्थेमो ॥ मेरु व धोरगरुओ, रामो तिसमुद्दमेहलं पुहई । पालेऊण समत्थो, परिकिण्णो बन्धवनणेणं ॥ हेमन्तवर्णनम् -
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चिन्तावरस्स एवं, नरिन्दवसहस्स रज्जविमुहस्स | अभिलङ्घिओ य सरओ, हेमन्तो चेव संपत्तो ॥ हेमन्तवायविहवो, लोगो परिफुडियअहर-कर-चरणो । रयरेणुपडलछन्नो, ससी व मन्दच्छविं वहइ ॥ आकुञ्चियकर - गीवा, पुरिसा सीएण फुडियसबङ्गा । सुमरन्ति अग्गिनिवहं दीणा वि अमन्दपाउरणा || ४३ ॥ आवडियदसणवीणा, दारु-तणाजीवया थरथरेन्ता । दारिदसमभिभूया, गमेन्ति कालं अकयपुण्णा ॥ ४४ ॥ पासायतलत्था विय, अन्ने पुण गीय-वाइयरवेणं । वरवत्थपाउयङ्गा, कालागरुधूवससुयन्धा ॥ ४५ ॥
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सूर्यजयके साथ धीर रत्नमाली आचार्य तिलकसुन्दरकी शरण में गया और जिनोपदिष्ट दीक्षा अंगीकार की । (३१) सूर्यजय बड़ा भारी तप करके महाशुक्र नामके देवलोकमें गया। वहाँसे च्युत होकर तुम अनरण्यसुत दशरथ हुए हो। (३२) हे राजन् ! अल्प पुण्य से शुभ कर्मके उदयके कारण उपास्ति आदिके जन्मोंमें तुमने वटवीजकी भाँति वृद्धि प्राप्त की है । (३३) पूर्वजन्ममें तुम नन्दिवर्धनका नन्दिघोष नामका जो पिता था वह मैं मैवेयकसे च्युत होकर सर्वभूतहित मुनि हुआ हूँ । (३४) भूरी और उपमृत्यु नामके जो दो मनुष्य थे वे यहाँ तुम्हारे वशवर्ती जनक और कनक हुए हैं । (३५) अनेक लाख भवोंके सम्बन्धवाले घोर संसारमें जीव अपने कर्मों के कारण मरण एवं परिवर्तन प्राप्त करते रहते हैं । (३६)
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मुनिवरका ऐसा उपदेश सुनकर संसार से उद्विग्न दशरथ तत्क्षण ही संयमाभिलाषी हुआ । ( ३७ ) सम्पूर्ण आदर के साथ गुरु चरणों में वन्दन करके दशरथ राजाने जन एवं धनसे भरीपूरी साकेत नगरीमें प्रवेश किया । (३८) वहाँ आनेके पश्चात् वह सोचने लगा कि रामको राज्य देकर और मैं सर्व आसक्तियोंसे रहित हो मुक्तिसुखके लिए प्रार्थना करूँ । (३९) मेरुके समान धीर-गम्भीर राम समस्त बान्धवजनोंसे युक्त हो तीन ओर समुद्रकी मेखलावाली पृथ्वीका पालन करे। (४०) इस तरह सोचते हुए और राज्यसे विमुख ऐसे राजाका शरत्काल व्यतीत हो गया और हेमंतकाल आ पहुँचा । (४१)
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हेमन्त ऋतु पवन से प्रताड़ित और इसीलिए होठ व हाथ-पैर जिनके फट गये हैं ऐसे लोग धूलिकणोंके समूह से आच्छन्न चन्द्रकी भाँति मन्द शोभा धारण करते थे । (४२) शीतके कारण हाथ और गर्दन सिकुड़े हुए तथा जिनका सारा शरीर फट गया है ऐसे दीन पुरुष ढेर से कपड़े धोढ़ने पर भी भागको याद करने लगे । (४३) दाँतरूपी वीणा बजानेवाले, दारिद्र से अत्यन्त अभिभूत तथा अपुण्यशाली और लकड़ी एवं घास पर आजीविका चलानेवाले लोग थर-थर काँपते हुए किसी तरह काल बिताते थे। (४४) और सुंदर वस्त्रोंसे शरीर ढकनेवाले तथा कालागुरुकी धूपसे सुगन्धित महलों में रहनेवाले दूसरे लोग गीत एवं वाद्योंकी ध्वनिसे अपना समय व्यतीत करते थे । (४५) कुंकुमका अंगराग किये हुए तथा अक्षीण धनवाले
१. घण - कणाइण्णं प्रत्य० ।
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