Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 312
________________ ३२.७२] ३२. दसरहपब्वज्जा-रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं भरहो नमिऊण मुणी, तस्स य पुरओ अभिग्गहं धीरो । गेण्हइ रामदरिसणे, पबज्जा हं करिस्सामि ॥ ५८ ॥ भरहेण धम्मनिहसं, समणो परिपुच्छिओ भणइ एवं । जाव य न एइ रामो, ताव गिहत्थो कुणसु धम्मं ॥ ५९ ।। विविधव्रतनियमजिनपूजादानादीनां फलम्अच्चन्तदुद्धरधरा, चरिया निग्गन्थमहरिसीणं तु । परिकम्मविसुद्धस्स उ, होही सुहसाहणा नियमा ॥ ६०॥ रयणद्दीवम्मि गओ, गेण्हइ एक पि जो महारयणं । तं तस्स इहाणीयं, महग्धमोल्लं हवइ लोए ॥ ६१ ॥ जिणधम्मरयणदीवे, जइ नियममणि लएइ एक पि । तं तस्स अणग्धेयं, होही पुण्णं परभवम्मि ॥ ६२ ॥ पढममहिंसारयणं, गेण्हेउं जो जिणं समच्चेइ । सो भुञ्जइ सुरलोए, इण्दियसोक्खं अणोवमियं ॥ ६३ ॥ सञ्चबयनियमधरो, जो पूयइ जिणवरं पयत्तेणं । सो होइ महुरवयणो भुञ्जइ य परंपरसुहाई ॥ ६४ ॥ परिहरिऊण अदत्तं, जो जिणनाहस्स कुणइ वरपूयं । सो नवनिहीण सामी, होही मणि-रयणपुण्णाणं ॥ ६५ ॥ परनारीसु पसङ्ख, न कुणइ जो जिणमयासिओ पुरिसो। सो पावइ सोहग्गं, नयणाणन्दो वरतणुणं ॥६६॥ संतोसवयामूलं, धारइ य निणिन्दवयणकयभावो । सो विविहधणसमिद्धो, होइ नरो सबजणपुज्जो ॥ ६७ ॥ आहारपयाणेणं, जायइ भोगस्स आलओ निययं । जइ वि य जाइ विएस, तहवि य सोक्खं हवइ तस्स ॥ ६८ ॥ अभयपयाणेण नरो, जायइ भयवजिओ निरोगो य । नाणस्स पयाणेणं, सबकलापारओ होइ ॥ ६९ ॥ आहारवज्जणं नो, करेइ रयणोसु जिणमयाभिमुहो । आरम्भपवत्तो वि य, लहइ नरो सो वि सुगइपहं ॥ ७० ॥ अरहन्तनमोक्कार, तिणि वि काले करेइ नो पुरिसो । तस्स बहुयं पि पावं, नासइ वरसुद्धभावस्स ॥ ७१ ॥ जल-थलयसुरहिनिम्मलकुसुमेसु य जो जिणं समच्चेइ । सो दिबविमाणठिओ, कीलइ पवरच्छराहि समं ॥ ७२ ।। होने पर मैं दीक्षा लूँगा। (५८) भरतके द्वारा धर्मकी कसौटी जैसे उत्तम मुनिवरको पूछने पर उन्होंने ऐसा कहा कि जबतक राम नहीं आते तबतक गृहस्थधर्मका आचरण करो। (५९) निर्ग्रन्थ महर्षियोंकी चर्या धारण करनेमें अत्यन्त दुर्धर होती है। अभ्याससे विशुद्ध व्यक्तिके लिए वह नियमतः सुखपूर्वक साधन करने योग्य होती है। (६०) रनदीपमें गया हुआ मनुष्य यदि एक भी महारत्न लेता है तो वह यहाँ लानेपर लोगों में अत्यन्त मूल्यवान होता है। (६१) जिनधर्मरूपी रत्नद्वीपमें यदि एक भी नियमरूपी मणि लिया जाय तो उससे परभवमें अमूल्य ऐसा पुण्य होता है । (६२) पहला अहिंसारूपी रत्न ग्रहण करके जो जिनवरकी पूजा करता है वह देवलोक में अनुपम इन्द्रिय सुखका उपभोग करता है। (६३) सत्यव्रतका नियम धारण करनेवाला जो मनुष्य भक्तिभावसे जिनवरकी पूजा करता है वह मधुर वचनवाला होता है और सुखोंकी परम्पराका उपभोग करता है। (६४) अदत्त (चौर्य) का परित्याग करके जो जिननाथकी उत्तम प्रकारसे पूजा करता है वह मणि एवं रनोंसे पूर्ण नव निधियोंका स्वामी बनता है। (६५) जिनमतका आश्रित जो पुरुष परस्त्रीके साथ प्रसंग नहीं करता अर्थात् ब्रह्मचर्यका पालन करता है वह आँखोंको आनन्द देनेवाला ऐसा उत्तम त्रियोंका सौभाग्य प्राप्त करता है । (६६) जिनेन्द्र के वचनोंमें श्रद्धा रखनेवाला जो व्यक्ति सर्वथा सन्तोषव्रत धारण करता है वह विविध प्रकारके धनोंसे समृद्ध तथा सबलोगोंके लिए पूजनीय होता है । (६७) आहारदानसे वह अवश्य ही भोगका धाम बनता है। यदि वह विदेशमें जाता है तो भी उसे सुख मिलता है । (६८) अभयप्रदानसे मनुष्य निर्भय और नीरोग होता है। ज्ञानके दानसे वह सब कलाओंमें पारगामी होता है । (६९) जिनधर्मकी ओर अभिमुख जो रातमें आहारका त्याग करता है वह मनुष्य प्रारम्भमें प्रवृत्त होने पर भी सुगतिका मार्ग प्राप्त करता है । (७०) जो पुरुष तीनों कालमें अरिहन्त भगवान्को नमस्कार करता है उस अत्यन्त शुद्ध भाववालेका बहुत-सा भी पाप नष्ट हो जाता है। (७१) जलमें तथा स्थलपर होनेवाले सुगन्धित एवं निर्मल पुष्पोंसे जो व्यक्ति जिनेश्वरकी पूजा करता है वह दिव्य विमान में स्थित १. मुर्णि-प्रत्य.। २. लहेइ-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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