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पउमचरियं
[३३. ६३
एवं नराहिवो सो. केण वि तुह वेरिएण अक्खाए । अवसेण इहाऽऽगच्छइ, करेहि हियइच्छियं ते ॥ ६३ ॥ तो भणइ वज्जयण्णो, को सि तुम ? कत्थ देसवत्थबो? । कह वा नरिन्दमन्तो, एसो ते जाणिओ? भणह ॥ ६४ ॥ सो भणइ कुन्दनयरे, नामेणं सद्दसंगमो वणिओ । जउणा तस्स वरतणू , पुत्तो वि य विजुयङ्गो हैं ॥ ६५ ॥ पत्तो य जोवणसिरी, उज्जेणी आगओ वणिज्जेणं । दट्टण अणङ्गलया, वेसा आयलय पत्तो ॥ ६६ ॥ वसिओ य एगरतिं. तीऍ समं तिबनेहराएणं । कढिणयरं चिय बद्धो, हरिणो नह वाउराए ब॥६७॥ जणएण मज्झ निययं, समज्जियं जं धणं असंखेज । तं छम्मासेण पहू! विणासियं मे दुपुत्तेणं ॥ ६८॥. जह कमले व महयरो, आसतो तह य कामगयचित्तो। महिलाणुरागरत्तो, किं न कुणइ साहसं पुरिसो? ॥ ६९ ॥ अह सा सहीऍ पुरओ, निन्दन्ती निययकुण्डलं मुणिया । एएण असारेणं, किं कीरइ कण्णभारेणं? ॥ ७० ॥ भणइ य अहो! कयत्था, धन्ना सा सिरिधरा महादेवी । उत्तमरयणाइद्धं, सोहइ मणिकुण्डलं कण्णे ॥ ७१ ॥ अहयं कुण्डलचोरो. रायहरं पत्थिओ निसि पओसे । सीहोयरं सुया मे, पुच्छन्ती सिरिहरा देवी ॥ ७२ ॥ नरवइ ! न लहसि निर्दे, किं उबिम्गो सि दारुणं अजं ? । सो भणइ मज्झ निद्दा, कत्तो चिन्ताउलमणस्स? ॥ ७३ ॥ मह विणयपराहुतो, न मारिओ नाव सुन्दरी! दुट्ठो । दसउरनयराहिवई, ताव कओ मे हवइ निद्दा ? ॥ ७४ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, तो हं मोत्तूण चोरियं तुरिओ । एत्थाऽऽगओ नराहिव! तुज्झ रहस्सं परिकहेउं ।। ७५ ।। जाव च्चिय उल्लावो. एसो वट्टइ सभाए मज्झम्मि । ताव च्चिय बलसहिओ, पत्तो सीहोयरो राया ॥ ७६ ॥ सो गेण्हिउं असत्तो. तं नयरं विसमदुग्ग-पायारं । परिवेढिऊण सयल, पुरिसं पेसेइ तुरन्तं ॥ ७७ ॥
कहा गया वह राजा यहाँ अवश्य आ रहा है। अतः मनमें जैसी इच्छा हो वैसा करो । (६३) तब वनकर्णने पूछा कि तुम कौन हो? किस देशके निवासी हो ? मुझे कहो कि तुमने राजाका यह गुप्त रहस्य कैसे जाना ? (६४) इस पर उसने कहा कि
कुन्दनगरमें शब्दसंगम नामका एक वणिक रहता है। उसकी सुन्दर पन्नी यमुना है। उनका मैं विद्यदंग नामका पुत्र हूँ। (६५) यौवनकी कान्ति प्राप्त होने पर मैं व्यापारके लिए उज्जयिनी आया। वहाँ अनंगलता नामको गणिकाको देखकर मैं प्रेमासक्त हो गया । (६६) मैं उसके साथ एक रात रहा और जालमें बद्ध हिरनकी भाँति तीघ्र स्नेहरागवश मैं उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया । (६७) मेरे पिताने जो असंख्येय धन उपार्जित किया था वह कुपुत्र मैंने छः मासमें ही नष्ट कर दिया । (६८) जिस प्रकार कमलमें आसक्त भौंरा होता है उसी प्रकार काममें आसक्त मनवाला पुरुष होता है। स्त्रीके अनुरागमें लीन पुरुष कौनसा साहस नहीं करता ? (६९) तब सखियोंके सामने अपने कुण्डलोंको निन्दा करती हुई उसने कहा कि इस असार और कानके लिए भाररूप कुण्डलोंको रखकर मैं क्या करूँ ? (७०) उसने कहा कि वह पटरानी श्रीधरा धन्य एवं कृतार्थ है कि जिसके कानमें उत्तम रत्नोंसे जड़े हुए मणिकुण्डल शोभित हो रहे हैं । (७१) कुण्डलचोर मैंने रात्रिमें प्रदोषके समय राजमहलकी ओर प्रस्थान किया। वहाँ सिंहोदरसे इस प्रकार पूछती हुई श्रीधरा मेरे द्वारा सुनी गई कि, हे राजन् ! तुम्हें नींद क्यों नहीं आ रही? आज तुम इतने उद्विग्न क्यों हो? इस पर उसने कहा कि चिन्तातर मनवाले मुझे नींद कहाँसे आ सकती है ? हे सुन्दरी ! विनयसे पराङ्मुख और दुष्ट दशपुर नरेश जबतक मेरे द्वारा नहीं मारा जाता तबतक मुझे कैसे नोंद आ सकती है। (७२-७४) हे नराधिप ! ऐसा वचन सुनकर चुरानेका छोड़ मैं तो जल्दी-जल्दी यहाँ पर तुम्हें यह गुप्त बात कहनेके लिए आया हूँ। (७५)
जबतक सभाके बीच यह बातचीत हो हो रही थी तबतक तो सिंहोदर राजा सैन्यके साथ आ पहुँचा । (७६) विषम तथा दुर्गम परकोटेवाले उस नगरको लेने में असमर्थ उसने उसे चारों ओरसे घेर लिया और फौरन ही एक आदमीको भेजा। (७७) वनकर्णके पास जाकर अपने स्वामीके कथनानुसार उसने अत्यन्त कठोर शब्दोंमें कहा कि मुनि द्वारा उत्साहित
१. सिरिं उज्जेणि-प्रत्य० । २. लयं वेसं-प्रत्यः ।
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