________________
३३.९३ ]
३३ वज्जयण्णउवक्खाणं
८२ ॥
८३ ॥
८४ ॥
॥
८५ ॥
तूण वज्जणं, सुणिदुरं भणइ सामिवयणेणं । मुणिउच्छाहियहिययो, निणवरगबं समुबहसि ॥ ७८ ॥ दिन्नं मए पहुत्तं, भुञ्जसि विसयं निणं नमंसेसि । मायाऍ ववहरन्तो, कह मज्झं निंबुई कुणसि ? ॥ ७९ ॥ न मज्झ चलणजुयलं, न नमसि रे वज्जयण्ण ! आगन्तुं । तो निच्छएण तुज्झं, न य जीयं नेय रज्जं ते ॥ ८० ॥ तो भइ वज्जयण्णो, मह बिसयं साहणं पुरं कोसं । सर्व्वं च गेण्हउ इमं, धम्मद्दारं च मे देउ ॥ ८१ ॥ एसा मए पन्ना, आरूढा साहुसल्लियासम्मि । एयं ते परिकहियं, अमओ हं न य विमुञ्चामि ॥ गन्तूण तत्थ दूओ, सबं सीहोयरस्स साहेइ । रुट्ठो रोहेइ पुरं, विसयं च इमं विणासेइ ॥ एवं ते परिकहियं, देसविणासस्स कारणं सर्वं । एत्तो गच्छामि अहं, सुन्नागारं इमं गामं ॥ डज्झन्तम्मि य विसए, मज्झ वि निययं कुडीरयं दद्धुं । भज्जाऍ पेसिओ हं, घडपिढराणं इहं देव ! एवं चिय परिकहिए, दट्टणऽइदुक्खियं दयावन्नो । पउमो देइ महग्घं, निययं कडित्तयं तस्स ॥ पणिवइऊण गओ सो, निययघरं देसिओ अइतुरन्तो । पउमो वि भणइ एत्तो, लक्खण ! वयणं सुणसु मज्झं नाव च्चिय न य सूरो, सुदुस्सहो होइ गिम्हकालम्मि । ताव इमस्स समीबं पुरस्स भूमिं पगच्छामो ॥ अह ते कमेण पत्ता, दसङ्गनयरस्स बाहिरुद्देसे । चन्दप्पहस्स भवणं, पन्थपरिस्समखीणा, सोया दट्टण लक्खणो सिग्धं । पविसरद दसउरं सो, अणुणाओ दारपालेहिं ॥ दिट्ठो य वज्जयण्णो, तेण वि संभासिओ निविट्टो य । भुञ्जावेहि लहु चिय, एवं भणिओ य सूयारो ॥ तो जंपइ सोमित्ती, मज्झ गुरू जिणहरे सह पियाए । चिट्टह्न तम्मि अभुत्ते, न य हं भुञ्जामि आहारं ॥ भणिओ सूयारवई, नरवइणा अन्न-पाणमाईयं । एयस्स तुमं निययं देहि तुरन्तो वराहारं ॥
८६ ॥
॥
थोऊण अवट्टिया तत्थ ॥
९३ ॥
८७ ॥
८८ ॥
८९ ॥
९० ॥
९१ ॥
९२ ॥
हृदयवाला तू जिनवर के कारण गर्व धारण करता है । (७८) मैंने तुम्हें प्रभुत्व प्रदान किया है और इसीलिए इस प्रदेशका । तुम उपभोग करते हो और फिर भी जिनको नमस्कार करते हो । छलकपटका व्यवहार करके तुम मुझे सन्तुष्ट कैसे कर सकते हो ? (७९) हे वज्रकर्ण ! तुम आ करके यदि मेरे दोनों पैरों में नमन नहीं करोगे तो निश्चयसे न तो तुम्हारा जीवन रहेगा और न यह राज्य ही रहेगा । (८०) इस पर वज्रकर्णने कहा कि मेरा राज्य, सेना, नगर, खजाना - सब कुछ ले लो, पर धर्मका साधन मुझे दो । (८१) साधुके पास मैंने यह प्रतिज्ञा की है । यह मैंने तुमसे कहा। जबतक जीवित हूँ तबतक मैं इसे नहीं छोडूंगा । (८२) वहाँ जाकरके दूतने सिंहोदरसे सब कुछ कहा। इस पर रुष्ट हो करके उसने नगरको घेरा डाला और इस प्रदेशको तहस-नहस कर दिया । (८३) इस प्रकार मैंने इस देशके विनाशका सब कारण तुमसे कहा । अब मैं शून्य घरोंवाले इस नगर में जाता हूँ। (८४) जब सारा प्रदेश जलाया जा रहा था तब मेरी अपनी कुटिया भी जला दी गई। हे देव ! घड़े और मथानी के लिए मेरी पत्नीने मुझे यहाँ भेजा है। ( =५ ) इस प्रकार कहने पर अतिदुःखित देख दयालु रामने अत्यन्त मूल्यवान् अपनी करधौनी उसे दी । (५६) वह मुसाफिर प्रणाम करके अत्यन्त शीघ्रताके साथ अपने घर लौट गया ।
Jain Education International
२६७
तब रामने कहा कि, हे लक्ष्मण ! तुम मेरा कहना सुनो। (८७) ग्रीष्मकाल में जबतक सूर्य अत्यन्त दुरसह नहीं हो जाता तबतक हम इस नगरकी भूमिके समीप पहुँच जायँ । (८८) यथासमय वे दर्शाांगपुर नगर के बाहर के भागमें आ पहुँचे और चन्द्रप्रभस्वामी मन्दिर में स्तुति करके वहीं ठहरे । (८९) मार्गके परिश्रमसे थकी हुई सीताको देखकर द्वारपालों द्वारा अनुज्ञात लक्ष्मणने दशपुर में प्रवेश किया । (९०) उसने वज्रकर्णको देखा, उससे बातचीत की और आसन पर बैठा । वज्रकर्णने रसोइयेसे कहा कि इसे जल्दी भोजन कराओ । (९१) इस पर लक्ष्मणने कहा कि मेरे बड़े भाई अपनी प्रिया के साथ जिनालय में ठहरे हुए हैं। जबतक वह भोजन नहीं करते तबतक मैं भी भोजन नहीं करता । (९२) राजाने बड़े रसोइयेको आज्ञा दी कि तुम अवश्य ही इसे जल्दी उत्तम आहार दो । (९३) लक्ष्मण उसे ले गये और यथेच्छ भोजन भूमीए ग - मु० । ३. खीणं सीयं प्रत्य० ।
१. निव्वुई - प्रत्य० । २.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org