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३२. दसरहपव्वजा-रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं तो दसरहो वि राया, पुत्तविओए अईवसंविग्गो । ठावेइ तक्खणं चिय, विसए रज्जहिवं भरह ॥ २६ ॥ संवेगजणियकरणो, भडाण बावत्तरीऍ समसहिओ । दिक्खं गओ नरिन्दो, पासे च्चिय भूयसरणस्स ॥ २७॥ दशरथप्रव्रज्यातत्थ वि एगविहारी, अणरण्णसुओ तवं पकुबन्तो । मणसा दूमियहियओ, पुत्तसिणेहं समुषहइ ॥ २८ ।। अह अन्नयो कयाई, धीरो आरुहिय सुहयरं झाणं । चिन्तेइ तो मणेणं, नेहो च्चिय बन्धणं गाढं ॥ २९ ॥ धण-सयण-पुत्त-दारा, जे अन्नभवेसु आसि णेगविहा । ते कत्थ गयाऽणाईसंसारे परिभमन्तस्स ॥ ३० ॥ परिभुत विसयसुह, सुरलोए बरविमाणवसहीसु । नरयाणलदाहा चिय, संपत्ता भोगहेउम्मि ॥ ३१॥ . अन्नोन्नभक्खणं पुण, तिरिक्खनोणीसुसमणुभूयं मे । पुढवि-जल-जलण-मारुय भमिओ य वणस्सईसुचिरं ॥ ३२॥ मणयत्तणे वि भोगा. भुत्ता संजोय-विप्पओगा य । बहरोग-सोगमाई. बन्धवनेहाणरत्तेणं ॥ ३३ ॥ तम्हा पुत्तसिणेहं, एयं छड्डेमि दोसआमूलं । मुणिवरदिट्टेण पुणो, झाणेण मणं विसोहेमि ॥ ३४ ॥ विविहं तवं करेन्तो. अहियासेन्तो परीसहे सबै । दसरहमुणी महप्पा, विहरइ एगन्तदेसेसु ॥ ३५ ॥ पुत्तेसु पर विएस, गएसु अवराइया य सोमित्ती । भत्तारे पबइए, सोयसमुद्दम्मि पडियाओ ॥ ३६ ॥ सुयसोगदुक्खियाओ, ताओ दट्टण केगई देवी । तो भणइ निययपुत्तं, वयणमिणं मे निसामेहि ॥ ३७ ॥ निक्कण्टयमणुकूलं, पुत्त! तुमे पावियं महारजं । पउमेण लक्खणेण य, रहियं न य सोहए एयं ॥ ३८ ॥ ताणं चिय जणणीओ, पुत्तविओगम्मि जायदुक्खाओ । काहिन्ति मा हु कालं, आणेहि लहु वरकुमारे ॥ ३९ ॥ नणणीऍ वयणमेयं, सुणिऊण तुरंगमं समारूढो । तुरन्तो चिय भरहो, ताणं अणुमम्गओ लग्गो ॥ ४०॥ इय दिट्ठा वि य समयं, महिलाए ते कुमारवरसीहा । पुच्छन्तो पहियजणं, वच्चइ भरहो पवणवेगो ॥ ११ ॥
तब दशरथ राजा भी पुत्रके वियोगके कारण अत्यन्त विरक्त हो गये। उन्होंने शीघ्र ही राज्याधिप भरतको राजगद्दी पर बिठाया । (२६) अन्तःकरणमें जिसे वैराग्य उत्पन्न हुआ है ऐसे राजाने बहत्तर सुभटोंके साथ भूतशरण मुनिके पास दोक्षा ली । (२७) एकाकी विचरण करनेवाले दशरथ यद्यपि तप करते थे, तथापि दुःखित हृदयवाले वे मनमें पुत्रस्नेह धारण करते थे। (२८) एक दिन धीर दशरथ शुक्लतर ध्यानमें आरूढ़ होकर मनमें सोचने लगे कि स्नेह भी गाढ़ बन्धन रूप है। (२९) दूसरे भावों में जो मेरे अनेकविध धन, स्वजन, पुत्र और पत्नी आदि थे वे अनादिसंसारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे लिए कहाँ चले गये १ (३०) देवलोकमें आये हुए उत्तम विमानस्थानों में विषयसुखका उपभोग किया है, तो भोगके कारण नरककी आगमें जलना भी पड़ा है। (३१) तियचयोनिमें एकदूसरेके भक्षणका मैंने अनुभव किया है तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पतिमें चिरकाल तक घूमा हूँ। (३२) मनुष्यजन्म में भी बान्धवोंके स्नेहमें अनुरक्त मैंने भोग, संयोग एवं वियोग तथा अनेक रोग एवं शोक आदिका अनुभव किया है। (३३) अतः दोषके मूलरूप इस पुत्रस्नेहको भी मैं छोड़ता हूँ और मुनिवरके द्वारा कहे गये ध्यानसे मैं मनको शुद्ध करता हूँ। (३४) विविध तप करते हुए तथा सब परीषहोंको सहते हुए महात्मा दशरथमुनि एकान्त देशोंमें विहार करते थे। (३५)
पुत्रोंके दूसरे देशमें जानेसे तथा पतिके प्रबजित होनेसे अपराजिता तथा सुमित्रा शोकसमुद्र में डूब गई। (३६). उन्हें पुत्रके शोकसे दुःखित देखकर कैकेईने अपने पुत्रसे कहा कि मेरा यह कथन सुन । (३७) हे पुत्र! तूने निष्कण्टक तथा अनुकूल महारराज्य प्राप्त किया है, किन्तु राम एवं लक्ष्मणसे रहित यह सुहाता नहीं है। (३८) पुत्रवियोगसे दुःखित उनकी माताएँ काल न करें, अतः तुम शीघ्र ही उन कुमारवरोंको वापस ले आओ। (३९) माताका ऐसा कथन सुनकर तुरन्त ही घोड़े पर सवार हो भरत उनकी खोजमें लग गया। (४०) स्त्रीके साथ सिंहके जैसे उन कुमारवरोंको देखा है?-इस प्रकार पथिकजनोंसे पूछता हुआ भरत पवनके वेगसे आगे बढ़ने लगा। (४१) भयंकर महावनमें नदीके किनारे पर सीताके साथ
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