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३३.२]
३३ बज्जयण्णउबक्खाणं पुणरवि काऊण तवं, पावइ सिद्धि विमुक्ककम्मरओ । एत्तो सुणसु विभत्ति, जिणवन्दणभत्तिरायस्स ॥ ८८॥ मणसा होइ चउत्थं, छट्ठफलं उट्ठियस्स संभवइ । गमणस्स उ आरम्भे, हवइ फलं अट्ठमोवासे ।। ८९॥ गमणे दसमं तु भवे, तह चेव दुवालस गए किंचि । मज्झे पक्खोवासं, मासोवासं तु दिटेणं ॥ ९०॥ संपत्तो जिणभवणं, लहई छम्मासियं फलं पुरिसो । संवच्छरियं तु फलं दारुइसे ठिओ लहह ॥ ९१ ॥ पायक्खिण्णे लहड य. वरिससयफलं जिणे तओ दिट्टे । पावइ परिससहस्सं. अणन्तपुण्णं जिणथईए ॥९ ॥ जिणवन्दणभत्तीए, न हु अन्नो अस्थि उत्तमो धम्मो । तम्हा करेहि भत्ती, भरह ! तुम जिणवरिन्दाणं ॥ ९३ ॥ पच्छा निम्गन्थरिसी, भविऊण सिवं पि जाहिसि कयत्थो । भरहो मुणिस्स पासे, सायारं गेण्हई धम्मं ॥ ९४ ॥ दरिसणविसुद्धभावो, साहुपयाणुज्जओ विणीओ य । जुयइसयद्धेण समं, करेइ रज गुणविसालं ॥ ९५ ॥ एवंविहे वि रजे, नियएण उवेइ भोगमणुबन्धं । चिन्तेइ तम्गयमणो, कइया दिक्खं पवज्जे हैं। ॥ ९६ ॥ एवं तु राया भरहो विणीओ, जिणिन्दनिम्गन्थकहाहि सत्तो। सकम्मविद्धंसणहेउभूयं, करेइ चित्तं विमलं विसुद्धं ॥९७॥
॥ इय पउमचरिए दसरहपव्वजारामनिम्गमणभरहरजविहाणो नाम बत्तीसइमो उहेसओ समत्तो ॥
३३. वज्जयण्णउवक्खाणं ततो ते दो वि जणा, सोयासहिया कमेण वच्चन्ता । पत्ता य तावसकुलं, वक्कल-जडधारिणो जन्थ ॥ १ ॥ नाणासंगहियफलं, अकिट्ठधण्णेण रुद्धपहमग्गं । उम्बर-फणस-वडाणं, समिहासंघायकयपुजं ॥२॥
अब तुम जिनवन्दन तथा भक्तिरागके बारेमें विवरण सुनो । (८८) मनसे सोचने पर एक उपवासका तथा उठे हुएको बेलेका फल होता है। गमनका आरम्भ करने पर अष्टम उपवास (तेले) का फल होता है। (८९) गमन करने पर दशम (चार उपवास) तथा थोड़ा चलने पर द्वादश (पाँच उपवास) का फल मिलता है। मध्यमें एक पक्षके उपवासका तथा जिनभवनका दर्शन होने पर एक मासके उपवासका फल मिलता है। (१०) जिनभवन पहुँचा पुरुष छःमासका फल पाता है। द्वार प्रदेशमें स्थित मनुष्य सांवत्सरिक उपवासका फल प्राप्त करता है। (९१) प्रदक्षिणा करने पर सौ वर्षका फल पाता है। जिनका दर्शन करने पर हजार वर्षका फल तथा जिनकी स्तुति करनेसे तो अनन्त पुण्य प्राप्त करता है। (९२) जिनेश्वरके वन्दन एवं भक्तिसे बढ़कर दूसरा कोई उत्तम धर्म नहीं है। इसलिए, हे भरत! तुम जिनेन्द्रोंकी भक्ति करो। (९३) बादमें कृतार्थ तुम निम्रन्थ ऋषि होकर मोक्षमें भी जाओगे।
ऐसा उपदेश सुनकर भरतने मुनिके पास गृहस्थधर्म अंगीकार किया । (९४) सम्यक्त्वके कारण विशुद्ध भाववाला. साधुओंको दान देनेमें उद्यत तथा विनीत भरत डेढ़ सौ युवतियोंके साथ समृद्ध एवं विशाल राज्यका पालन करने लगा। (९५) अपने ऐसे राज्यमें भो वह भोग एवं स्नेहभाव नहीं रखता था। उसीमें (धर्ममें) जिसका मन लगा है ऐसा वह सोचा करता था कि कब मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा ? (९६) इस प्रकार विनीत तथा जिनेन्द्र एवं निम्रन्थोंकी कथामें आसक्ति रखनेवाला भरत अपने कर्मों के नाशके लिए चित्तको विमल एवं विशुद्ध करता था । (९७)
। पद्मचरितमें दशरथ-प्रव्रज्या, राम-निर्गमन तथा भरतका राज्य-विधान नामक बत्तीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
३३. वजूकर्ण उपाख्यान इसके बाद सीताके साथ वे दोनों राम और लक्ष्मण क्रमशः परिभ्रमण करते हुए वल्कल एवं जटाधारी तापस जहाँ थे ऐसे एक आश्रममें था पहुँचे । (१) वह आश्रम नानाविध फलोंसे परिपूर्ण था, उदुम्बर, पनस एवं बड़के पत्तोंके हटाये
१. भति-प्रत्य।
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