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२६० पउमचरियं
[३२.७३भाषकुसुमेसु नियय, विमलेसु निणं समच्चए जो उ । सो होइ सुन्दरतणू , लोए पूयारिहो पुरिसो ।। ७३ ॥ धूयं अगरु-तुरुक्कं, कुंकुम-वरचन्दणं निणवरस्स । 'नो देइ भावियमई, सो सुरहिसुरो समुन्भवइ ॥ ७४ ॥ जो जिणभवणे दीवं, देइ नरो तिबभावसंजुत्तो । सो दिणयरसमतेओ, देवो उप्पज्जइ विमाणे ॥ ७५ ॥ छत्तं चमर-पंडाया, दप्पण-लम्बूसया वियाणं च । जो देइ जिणाययणे, सो परमसिरिं समुबहइ ॥ ७६ ॥ गन्धेहि जिणवरतणू, जो हु समालभइ भावियमईओ । सो सुरभिगन्धपउरे, रमइ विमाणे सुचिरकालं ॥ ७७ ॥ काऊण जिणवराणं, अभिसेयं सुरहिगन्धसलिलेणं । सो पावइ अभिसेयं, उप्पज्जइ जत्थ जत्थ नरो ॥ ७८ ॥ खीरेण जोऽभिसेयं, कुणइ जिणिन्दस्स भत्तिराएणं । सो खीरविमलधवले, रमइ विमाणे सुचिरकालं ॥ ७७ ॥ दहिकुम्मेसु जिणं जो, हवेइ दहिकोट्टिमे सुरविमाणे । उप्पज्जइ लच्छिधरो, देवो दिशेण रूवेणं ॥ ८० ।। एतो घियाभिसेयं. जो कणह जिणेसरस्स पययमणो । सो होइ सुरहिदेहो. सुरपवरो वरविमाणम्मि ॥२१॥ अभिसेयपभावेणं. बहवे सुवन्ति ऽणन्तविरियाई । लद्धाहिसेयरिद्धी, सुरवरसोक्खं अणुहवन्ति ।। ८२ ॥ भत्तीऍ निवेयणयं, बलिं च जो जिणहरे पउछुइ । परमविभूई पावइ, आरोग्गं चेव सो पुरिसो ॥ ८३ ॥ । गन्धब-तूर-नट्ट, जो कुणइ महुस्सवं जिणाययणे । सो वरविमाणवासे, पावइ परमुस्सवं देवो ॥ ८४ ॥ जो जिणवराण भवणं, कुणइ नहाविहवसारसंजुत्तं । सो पावइ परमसुह, सुरगणअहिणन्दिओ सुइरं ॥ ८५ ॥ जिणपडिमा कुणइ नरो, जो दढधम्मो अणन्नदिट्ठीओ । सो सुर-माणुसभोगे, भोत्तूण सिवं पि पाविहिइ ॥ ८६ ॥
काऊण एवमाई, धम्म जिणदेसियं सुरविमाणे । उप्पज्जिऊण चविओ, चक्कहरत्तं पुणो लहइ ॥ ८७ ॥ होकर उत्तम अप्सराओंके साथ क्रीड़ा करता है। (७२) जो केवल निर्मल भावरूपी पुष्पोंसे जिनेश्वरकी अर्चना करता है वह पुरुष सुन्दर शरीरवाला और लोकमें पूजनीय होता है । (७३) जो श्रद्धालु अगुरु एवं तुरुष्कका धूप तथा केसर एवं चन्दन जिनवरको देता है वह देवाधिदेवके रूपमें उत्पन्न होता है। (७४) तीव्र श्रद्धासे युक्त जो मनुष्य जिनमन्दिरमें दीप करता है वह देवविमानमें सूर्यके समान तेजवाला देव होता है। (७५) जो जिनमन्दिरमें छत्र, चामर, पताका, दर्पण, लम्बूष एवं विमान देता है वह परम शोभा धारण करता है। (७६) जो श्रद्धापूर्वक सुगन्धित पदार्थों से जिनेन्द्र के शरीरको अलंकृत करता है वह सुगन्धित गन्धसे प्रचुर ऐसे विमानमें सुदीर्घ काल तक रमण करता है । (७७) जो मनुष्य सुगन्धित गन्धयुक्त जलसे जिनवरोंका अभिषेक करता है वह जहाँ जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ अभिषेक प्राप्त करता है। (७८) भक्तिरागके साथ जो दूधसे जिनेन्द्रोंका अभिषेक करता है वह दूधके समान विमल और धवल विमानमें चिरकाल तक आनन्द करता है। (७९) जो दहीके घड़ोंसे जिनको स्नान कराता है वह दधिकोट्टिम नामक देवविमानमें दिव्य रूपके कारण लक्ष्मीको धारण करनेवाला देव होता है। (८०) मनमें श्रद्धान्वित जो मनुष्य जिनेश्वरका घीसे अभिषेक करता है वह उत्तम विमानमें सुगन्धित शरीरवाला देव होता है। (८१) अभिषेकके प्रभावसे अनन्तवीर्य आदि बहुत-से ऐसे सुने जाते हैं जो अभिषेककी ऋद्धि प्राप्त करके देवोंके उत्तम सुखका अनुभव करते हैं। (२) भक्तिपूर्वक जो नैवेद्य एवं पूजोपहार जिनमंदिरमें चढ़ाता है वह मनुष्य परमविभूति तथा आरोग्य प्राप्त करता है। (८३) जो जिनमन्दिर में गीत, वाद्य एवं नृत्यसे महोत्सव करता है वह देव होकर उत्तम विमानमें वास करता हुआ परम उत्सव प्राप्त करता है। (४) जो जिनवरोंका वैभवके अनुसार भवन बनवाता है वह देवोंके गणसे अभिनन्दित हो सुचिर काल तक परम सुख प्राप्त करता है। (८५) जो धर्ममें दृढ़ तथा अनन्य दृष्टिवाला मनुष्य जिनप्रतिमा बनवाता है वह देव एवं मनुष्यों के भोगोंका उपभोग करके मोक्ष भी प्राप्त करता है। (६) इस तरहके जिनोपदिष्ट धर्मका आचरण करके मनुष्य देवविमानमें उत्पन्न होता है और च्युत होने पर चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है। (८७) फिर तप करके कर्मरजसे विमुक्त हो सिद्धि प्राप्त करता है।
१. दिव्यामलहारधरो-प्रत्य०। २. पडायं दप्पण लम्बूसयं-प्रत्य•। ३. सणु-प्रत्य०। ४. विभूई-प्रत्या। ५. पडिम-प्रत्य.।
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