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पउमचरियं ।
[२६.६५एयं साहुवएसं, सोऊणं कुण्डलो य दढसत्तो । पञ्चाणुवयसहिओ, जाओ महु-मंसविरओ य॥६५॥ जाओ अणन्नदिट्ठी, साहू नमिऊण निग्गओ तत्तो । परिचिन्तिऊण वच्चइ, अस्थि महं माउलो नियओ ।। ६६ । तस्स पसाएण अहं, सत्त निणिऊण समरमज्झम्मि । निययपुरे बलसहिओ, पुणरवि रज करीहामि ॥ ६७॥ चिन्तेऊण पयट्टो. एगागी दक्षिणावह तुरिओ। पन्थपरिस्समदुहिओ, मरणावत्थो तओ जाओ ।। ६८ ॥ जम्मि समए विमुञ्चइ, जीवं इह कुण्डलो तहिं अन्ना । सग्गाउ चुया देवी, अवसाणे आउखन्धस्स ॥ ६९ ॥ जणयस्स महिलियाए, गब्मे सम्मुच्छिया विदेहाए । जीवा कम्मवसेणं, दोणि वि एकोयरम्मि ठिया ॥ ७० ॥ एयन्तरम्मि साह. कालं काऊण पिङ्गलो सग्गे । जाओ सुरो महप्पा, सुमरइ अन्नं तओ जम्मं ॥ ७१ ॥ अवहिविसएण मुणिउं, जणयस्स वरङ्गणाऍ गब्भम्मि । उववन्नो मह सत्त , समय उन्नण जीवेणं ॥ ७२ ॥ सरिऊण विरहदुक्खं, सेणिय! पुवाणुबन्धजोएण । वेरपडिवचणट्टे, तं गन्भं रक्खई देवो ॥ ७३ ॥ नाऊण एवमेयं, दुक्खं चिय न य परस्स कायवं । मा पुणरवि अहिययरं, पाविहह परम्परं दुक्खं ॥ ७४ ॥ अह सा सुहं पसूया, दुहिया पुत्तं च तत्थ वइदेही । पुवभवबद्धवेरो, हरइ सुरो बालयं सिग्धं ॥ ७५ ॥ चिन्तेइ तो मणेणं, एवं दढकक्खडे सिलावट्टे । अप्फोडेमि रसन्तं, अह कुण्डलमण्डियं सत्त॥ ७६ ॥ पुणरवि चिन्तेइ सुरो, संसारनिबन्धणं ववसियं मे । कम्मं बहुदुक्खयर, एयं बालं वहन्तेणं ॥ ७७ ॥ साहुपसाएण मए, निणधम्मस्स य पसङ्गजोएणं । लद्धं मे देवत्तं, पावं न करेमि जाणन्तो ॥ ७८ ॥ परिचिन्तिऊण एयं, कुण्डल-वरहारभूसियं काउं । देबो मुञ्चइ बालं, उज्जाणे पत्तलच्छाए ॥ ७९ ॥ ताव य सेज्जासु ठिओ. चन्दगई खेयरो निसासमए । 'चुंपालएण पेच्छद, निवडन्तं रयणपज्जलियं ॥ ८० ॥
साधुका ऐसा उपदेश सुनकर दृढ़ शक्तिवाला कुण्डलमण्डित पाँच अणुव्रतोंके साथ मधु-मांससे विरत हुआ। (६५) वह पदार्थको सत्य रूपसे देखनेवाला (सम्यग्दृष्टि) हुआ। साधुको नमस्कार करके वहाँसे निकला और सोचने लगा कि मेरा अपना एक मामा है। (६६) उसके प्रसादसे युद्ध में शत्रको जीतकर सेनाके साथ अपने नगरमें मैं पुनः राज्य करूँगा । (६७) इस प्रकार सोचकर वह अकेला जल्दी जल्दी दक्षिणापथको ओर चल पड़ा। तब यह मार्गके परिश्रमसे दुःखित हो मरणासन्न हो गया। (६८) जिस समय कुण्डलमण्डितने यहाँ प्राण छोड़े उसी समय आयुष्यकर्मका क्षय होनेसे एक दूसरी देवी स्वर्गसे च्युत हुई । (६९) जनककी पत्नी विदेहाके गर्भ में वह उत्पन्न हुई। वे दोनों जीव कर्मवश एक ही उदर में स्थित हुए । (५०)
' इस बीच पिंगल साधु मर करके स्वर्गमें महाप्रभावशाली देव हुआ। तब उसने दूसरे जन्मका स्मरण किया । (७१) अवधिज्ञानसे उसने जाना कि जनककी पत्नीके गर्भ में दूसरे जीवके साथ मेरा शत्रु उत्पन्न हुआ है। (७२) हे श्रेणिक ! विरहदुःखको याद करके पूर्वके अनुबन्धके योगसे वैरका बदला लेनेके लिए उस गर्भकी देव रक्षा करता था । (७३) यह जानकर दूसरेको दुःख नहीं देना चाहिए। अन्यथा दूसरे जन्ममें और भी अधिक दुःख प्राप्त होगा । (७४)
- इसके बाद विदेहाने सुखपूर्वक वहाँ मिथिलामें पुत्री एवं पुत्रको जन्म दिया। पूर्वभवमें जिसने वैर बाँधा है. ऐसे उस देवने बालकका शीघ्र ही अपहरण किया । (७५) वह मनमें सोचने लगा कि दृढ़ और कठोर शिलाके ऊपर इस चिल्लाते हुए शत्रुको पटकूँ। (७६) फिर उस देवने सोचा कि इस बालकका अपहरण करके मैंने संसारको बाँधनेवाला बहुत दुःखकर कर्म किया है। (७७) मैंने साधुके प्रसादसे और जिनधर्मके परिपालनसे देवत्व प्राप्त किया है, अतः जानबूझ कर मैं पाप नहीं करूँगा । (७८) इस प्रकार सोचकर उस बालकको उत्तम कुण्डल एवं हारसे विभूषित कर पत्तोंकी छायावाले उद्यानमें ज्यों ही उसने छोड़ा त्यों ही रात्रिके समय शैयामें बैठे हुए चन्द्रगति खेचरने गवाक्षमेंसे नीचे पड़ते हुए रत्नसे प्रज्वलित. को देखा । (७९.८०) क्या यह बड़ा उत्पात है अथवा बिजलीका टुकड़ा है इस तरह मनमें विकल्प करता हुआ वह जाकर
१. गवाक्षेण ।
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