Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

Previous | Next

Page 283
________________ २३० पउमचरियं [२८.३७आयड्रिऊण खम्गं, विगयभओ गोउरं समल्लीणो । अह पेच्छइ तत्थ पुणो, वावी उज्जाणमज्झम्मि |॥ ३७॥ . दि8 जिणिन्दभवणं, नाणाविहमणिमऊहपज्जलियं । इन्दस्स वांसगेहं, नज्जइ सम्गाउ अवइण्णं ॥ ३८ ॥ अब्भन्तरं पविट्ठो, पेच्छइ सीहासणट्ठियं पडिमं । आइगरस्स भगवओ, दीहजडामउडकयसोहं ॥ ३९ ॥ रइऊण अञ्जलिउडं, सहसा ओमुच्छिओ समासन्थो । भावेण .पययमणसो, करेइ थुइमङ्गलविहाणं ॥ ४० ॥ काऊण य किइकम्म, उवविठ्ठो तत्थ विम्हिओ जणओ। मोत्तण आसरूवं, चवलगई वि य गओ सपुरं ॥ ४१ ॥ नमिऊण सामिचलणे, पत्तो साहेइ अवहियं जणयं । उज्जाणमज्झयारे, ठवियं चिय जिगहरासन्ने ॥ ४२ ॥ सोऊण आगयं सो, जणयं विजाहराहिवो तुट्ठो । घेत्तूण महापूयं, तं जिणभवणं गओ सिग्धं ॥ ४३ ॥ दिवविमाणारूढो, दिट्ठो जणएण सुहडपरिकिण्णो । मुणिओ य कओ एसो, इहागओ खेयराहिवई ? ॥ ४४ ॥ अमुणियचित्तसहावो, जणओ सीहासणन्तरनिलुक्को । जावच्छइ ताव चिय, चन्दगईणं कया पूया ।। १५ ।। थुइमङ्गलं च विहिणा, काऊणं तत्थ बारसावत्तं । अह गाइउं पवत्तो, जिणगुण वीणा य घेत्तर्ण ॥ ४६॥ जो तियसाहिवेहि एहविओ गिरिमत्थए, किन्नर-सिद्ध-जक्खकयमङ्गलसद्दए । जम्म-जरा-विओग-घणकम्मविणासए, पणमह आयरेण सययं उसभजिणिन्दए ॥ ४७ ॥ तुहं सयंभू भयवं! चउम्मुहो, पियामहो विण्हु जिणो तिलोयणो। अणन्तसोक्खामलदेहधारिणो, सयंपबुद्धो वरधम्मदेसओ ॥ ४८ ॥ पणमह सुर-नर-ससि-रविमहिय, बहुविहगुणसयवरसिरिनिलयं । अणुवमअचलियसिवसुहफलयं, जिणवरसुचरिय तुह मम सरणं ॥ ४९ ॥ देखी। (३७) वहाँ उसने नानाविध मणियोंकी किरणांसे प्रकाशित एक जिनमन्दिर देखा। स्वर्गमेंसे नीचे अवतीण इन्द्र के रहनेके भवन जैसा वह मालूम होता था । (३८) भीतर प्रवेश करके उसने सिंहासनस्थित तथा लम्बी जटाके मुकुटसे शोभित भगवान् ऋषभदेवकी मूर्ति देखी । (३९) हाथ जोड़ते हो वह सहसा मूर्छित हो गया। होशमें आने पर प्रयत्नशील हृदयवाले उसने भावपूर्वक स्तुति एवं मंगलविधि की । (४०) वन्दन करके विस्मित होता हुआ जनक वहाँ बैठा। चपलगति मी अश्वरूपका त्याग करके अपने नगरमें गया। (४१) स्वामीके चरणोंमें नमस्कार करके उसने कहा कि अपहृत जनककों उद्यानके बीच जिनमन्दिरके समीप स्थापित करके मैं यहाँ आया हूँ । (४२) आये हुए जनकके बारे में सुनकर तुष्ट विद्याधर राजा बड़ी भारी पूजा सामग्री लेकर शीघ्र ही उस जिनभवनके पास गया । (४३) दिव्य विमानमें आरूढ़ और सुभटोंसे घिरे हुए उसको जनकने देखा। और सोचा कि यह कौन खेचर-राजा यहाँ आया है ? (४४) उसके चित्तके भावसे अज्ञात जनक अभी तो सिंहासनके पीछे छिपकर बैठा ही था कि चन्द्रगतिने आकर पूजा की (४५) विधिपूर्वक स्तुति-मंगल तथा द्वादशावर्त वन्दन करके वीणा लेकर वह जिनके गुणोंका गान करने लगा (४६) जिनको इन्द्रोंने मेरुपर्वतके शिखर पर स्नान कराया, जिनका किन्नर, सिद्ध एवं यक्ष मंगल गीत गाते हैं, जो जन्म एवं जरासे रहित तथा गाढ़ कर्मोके विनाशक है-ऐसे ऋषभजिनेन्द्रको सतत आदरपूर्वक प्रणाम करो। (४७) हे प्रभो! आप ही स्वयम्भू, चतुर्मुख, पितामह, जिन और त्रिलोचन हैं। आप ही अनन्तसुख एवं निर्मल देहको धारण करनेवाले हैं। आप ही स्वयंसम्बुद्ध तथा उत्तम धर्मका उपदेश देनेवाले हैं। (५८) सुर, नर, चन्द्रमा एवं सूर्य द्वारा पूजित, अनेक प्रकारके सैकड़ों गुणों तथा शोभाके धामरूप तथा अनुपम एवं अचल शिवसुखका फल प्रदान करनेवाले जिनवरको प्रणाम करो। हे सुचरित! आप ही मेरे लिए शरणरूप हैं । (४९) मत्सर, राग एवं भयको जीतनेवाले, भय एवं दुर्गतिके १. वासभवणं, नजई-प्रत्य० । २. अपहृतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432